किसानों को अपनी जमीनों को लेकर खतरा क्यों महसूस हो रहा है?

8 दिसंबर के दिन अनुमानतः 50 लाख से भी ज्यादा की संख्या में लोगों ने एक दिन के देशव्यापी भारत बंद को भारत के 22 राज्यों में करीब 20,000 विरोध स्थलों पर आयोजित किया था। किसानों के इस आंदोलन में तमाम जन संगठनों, व्यापारिक निकायों, क्षेत्रीय संघों एवं लगभग 24 राजनीतिक दलों ने अपनी शिरकत की थी।
इसके एक दिन बाद 9 दिसंबर को किसान संगठनों ने केंद्र सरकार की सूची में दिए गए कृषि कानूनों के कुछ प्रावधानों में प्रस्तावित सुधारों वाले मसौदा प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया था। तमाम उलझनों के बावजूद अड़े रहते हुए आंदोलनकारी किसानों ने उसी दिन निर्धारित की गई बैठक की पूर्वपीठिका पर कड़ा रुख अपनाते हुए अपनी माँगों को लेकर ‘हाँ’ या ‘ना’ में जवाब माँगा था। इसमें बिजली बिल, 2020 को वापस लेने सहित तीनों कृषि कानूनों- कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधाकरण) अधिनियम, 2020; कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवा अधिनियम, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 समझौते को निरस्त करने से लेकर था।
अन्य चिंताओं के बीच किसानों द्वारा गहरे तक पैठ चुके इस भय को भी प्रतिध्वनित होते देखा जा सकता है कि उनकी जमीनें उनसे हथिया ली जाने वाली हैं। न्यूज़क्लिक के साथ बातचीत में कृषि विभाग के एक पूर्व कर्मचारी विक्रम सिंह गिल ने जो कि वर्तमान में विरोध प्रदर्शनों में शामिल हैं, ने कहा: “हमारे माता-पिता ने हमें पढ़ाया-लिखाया और मेरी बहनों का विवाह वे सिर्फ इसलिए कर सके क्योंकि हमारे पास कुछ जमीन थी। उन्होंने हमें सीख दी थी कि हर किसी चीज का बंटवारा कर लेना लेकिन जमीन का नहीं, क्योंकि यह हमारी माँ है। लेकिन अब कॉर्पोरेट इसे हमसे छीनना चाहते हैं। हम ऐसा हर्गिज नहीं होने देंगे।”
इन कानूनों में ऐसा क्या है जो कि किसान समुदाय में इस प्रकार का डर समाया हुआ है? इसका उत्तर किसानों के आर्थिक संकट, ऋणग्रस्तता एवं सर्वहाराकरण में तब्दील होते जाने की अपरिहार्य वृद्धि में निहित है, जो कि कृषि कानूनों की वजह से होने के लिए बाध्य हैं।
किसान नेता और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव विजू कृष्णन का इस बारे में कहना है: “भारतीय कृषि एक गंभीर कृषि संकट के दौर से गुजर रही है। 1991 से उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण वाली जिन नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को विभिन्न सरकारों द्वारा लागू किया जाता रहा, उसने इस प्रकार के संकट को जन्म दिया है जिसने खेतीबाड़ी के काम को घाटे का सौदा साबित कर दिया है। ऐसा इसलिये क्योंकि एक ऐसे समय में जब उन्हें अपनी उपज का लाभकारी मूल्य हासिल नहीं हो रहा है लेकिन उत्पादन की लागत में लगातार इजाफा होता जा रहा है। यह किसानों को ऋणग्रस्तता के अंतहीन दुश्चक्र में घेरता जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप इनमें से कईयों को अपनी जमीन से भी हाथ धोने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।”
किसानों की प्राथमिक चिंता इस बात को लेकर है कि अनाजों की सार्वजनिक खरीद की प्रणाली के विघटन एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से हाथ खींच लेने पर वे पहले से भी बड़े संकट में घिर सकते हैं, जिससे छोटे और सीमांत किसानों की आजीविका पूरी तरह से बर्बाद होने जा रही है। भारत में करीब 70% ग्रामीण परिवार आज भी अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर हैं और इनमें से तकरीबन 82% के करीब लोग छोटे और सीमांत किसान हैं। चिंता इस बात को लेकर है कि सार्वजनिक खरीद के अभाव में किसानों को फसल की कीमतों के लिए खुले बाजारों और वैश्विक उतार-चढ़ाव की दया पर छोड़ दिया जाने वाला है। यह मंच को बड़े निजी खिलाडियों द्वारा हथिया लेने के लिए तैयार कर देता है, जो किसानों के ऊपर खुद के नियम और शर्तों को थोपना शुरू कर देंगे।
किसानों को मिलने वाली कीमतों के आधार पर ही कृषि उनके लिए लाभकारी साबित हो सकती है। ये कीमतें बाजार में माँग और आपूर्ति की स्थिति से तय होती हैं। वैश्विक बाजार के मामले में किसानों को उत्पादन की लागत और उत्पादन की मात्रा के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा में जाना होगा।
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर विकास रावल ने इस वैश्विक माँग-आपूर्ति की स्थिति के बारे में विस्तार में बताते हुए कहा कि “भारतीय किसानों को कई नुकसानों को झेलना पड़ता है। जिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक खरीद जैसी व्यवस्था काफी अहम हो जाती हैं। माँग और आपूर्ति द्वारा उत्पन्न इस स्थिति के भीतर, कीमतों का निर्धारण आप किस स्तर तक प्रतिस्पर्धा को झेल रहे हैं, पर निर्भर करता है। यहाँ तक कि मौजूदा व्यवस्था में भी जिस प्रकार से कमीशन एजेंटों और व्यपारियों द्वारा हेरफेर की जाती है, उससे कभी-कभार किसानों को नुकसान होता है। अब जबकि इन्हें इनसे भी कई गुना बड़ी संस्थाओं द्वारा प्रतिस्थापित किया जाने वाला है तो ऐसे में किसानों को डर है कि भविष्य में वे और भी अधिक हाशिये पर फेंक दिए जाने वाले हैं। कॉर्पोरेटीकरण के साथ यही समस्या बनी हुई है। डर इस बात को लेकर है कि मौजूदा व्यापारियों की तुलना में कॉर्पोरेट की ताकत असीमित है और ऐसे में किसानों के खिलाफ शक्ति संतुलन पहले से भी अधिक झुकने जा रहा है।”
इस तरह के हालातों में किसानों की आय में लगातार गिरावट का क्रम जारी रहने वाला है और उन्हें ऋणग्रस्तता एवं आर्थिक संकट के मकड़जाल में फंसे रहने के लिए मजबूर कर दिया जाने वाला है। संकट के समय किसान के पास उसकी एकमात्र जमापूँजी जो बचती है, वह उसकी जमीन ही होती है। रावल इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि एकाधिकार नियंत्रण का पूँजी पर पकड़ बनाए जाने वाली प्रक्रिया है, जिसके परिणामस्वरूप छोटे किसान को अपने नुकसान की भरपाई करने के लिए अपनी जमीनों को या तो बेच देने या गिरवी रखने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिसके चलते ‘किसानों का सर्वहाराकरण’ होने लगता है।’
इस सर्वहाराकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप किसानों को प्रवासी मजदूर बनने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है, वे मजदूर वर्ग में समाहित हो सकते हैं या फिर अपने ही खेतों में दिहाड़ी मजदूरों के तौर पर काम करने वाले मजदूरों के तौर पर जाकर यह प्रक्रिया संपन्न होती है। संक्षेप में कहें तो, भले ही वे अपनी जमीन का पट्टा अपने नाम पर बरकरार रख पाने में सफल हो जाएँ, तो भी वे अपने श्रम और अपने श्रम से उपजे उत्पाद पर नियंत्रण रख पाने में असफल सिद्ध होते हैं।
एक साथ मिलकर इन तीनों कानून का उद्देश्य कृषि क्षेत्र के लिए बाजार को और उदार और बंधन मुक्त बनाने का है। कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधाकरण) अधिनियम के निशाने पर भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) और कृषि उपज मंडी समिति (एपीएमसी) के जरिये सार्वजनिक खरीद प्रणाली का संचालन है। निजी खिलाड़ियों और बड़े कृषि-व्यवसायों पर नियमन और नियंत्रण को हटाकर निजी व्यापारी-आधारित-प्रणाली को स्थापित कर फसल खरीद या एमएसपी की गारण्टी को खत्म करना इसका उद्देश्य है।
वहीँ कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवा अधिनियम समझौते के जरिये अनुबंध खेती की शुरुआत की जा रही है। किसानों को अब बड़े व्यापारियों और कृषि व्यवसाइयों के साथ एक गैर-बराबरी वाले मुकाबले में जाना पड़ेगा, जहाँ ये विशाल निगम ही इस खेल की शर्तों को - फसलों की बुआई के तरीकों, गुणवत्ता एवं कीमतों इत्यादि को तय करेंगे। किसान अपने श्रम पर नियंत्रण को खो देने वाले हैं, और कृषि व्यवसायों एवं बहुराष्ट्रीय निगमों की माँगों के अनुसार उपज को पैदा करने के लिए अनंतकाल तक मजबूर हो जायेंगे।
जबकि तीसरे कृषि कानून का उद्देश्य आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर अनाज, दालों, तिलहन, खाद्य तेलों, प्याज और आलू को नियंत्रण से बाहर करने को प्रभावी बनाना है। यह इन वस्तुओं की जमाखोरी और भंडारण की मौजूदा तय सीमा को हटा देता है और जिन वस्तुओं को अबतक “आवश्यक’ वस्तुओं की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया था, उन जिंसों की बड़े पैमाने पर जमाखोरी और काला-बाजारी के लिए सभी बंद दरवाजों को खोल देने का काम करता है।
कृष्णन इन तीनों कानूनों को ‘एक पैकेज’ बताते हुए कहते हैं: “सरकार खुद जहाँ न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आश्वासन देने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है और हमसे कह रही है कि अब ये कॉर्पोरेट कंपनियां आपको ऊँचे दाम मुहैय्या कराएंगी। कंपनियों ने इससे पहले भी खासकर सब्जियों इत्यादि के मामले में किसानों के साथ संपर्क साधा था, और किसान उन अनुभवों से अच्छी तरह से वाकिफ हैं। हमारे पास बिहार का भी अनुभव है जिसने 2006 में ही एपीएमसी से खुद को अलग कर लिया था, जहाँ किसानों को किसी भी प्रकार का लाभ नहीं मिल रहा है। वहाँ पर व्यापारी बेहद कम दामों पर अनाज की खरीद कर रहे हैं और फिर वे इससे भारी मुनाफा कमा रहे हैं।”
वास्तव में देखें तो यह तर्क भी दिया जा रहा है कि इससे सिर्फ किसानों को ही नहीं अपितु सरकार को भी फर्क पड़ने जा रहा है, जिसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) एवं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए एमएसपी पर खरीद व्यवस्था बनाए रखने की आवश्यकता है। पिछले तीन वर्षों के दौरान सार्वजनिक संस्थाओं ने देश में पीडीएस के जरिये अनाज मुहैय्या कराने के लिए कुल धान उत्पादन (4.5 करोड़ टन) का तकरीबन 40% और गेंहूँ उत्पादन (3.4 करोड़ टन) में से 32% हिस्से तक की खरीद का काम किया था। ऐसे में वर्तमान में जारी महामारी जैसी आपातकालीन स्थिति में खुले बाजार से भारी मात्रा में अनाज की खरीद कर पाना सरकार के लिए बेहद कठिन साबित हो सकता है।
ऐसी स्थिति को देखते हुए भी सरकार आखिरकार क्यों कृषि कानूनों को लागू कराने पर तुली हुई है?
इस बारे में कृष्णन का कहना है कि इन तीन कृषि कानूनों को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) और विकसित पूँजीवादी देशों के इशारे पर लाया गया है। इनकी ओर से भारतीय सरकार पर सार्वजनिक भंडारण और कृषि एवं खाद्य पर सब्सिडी की व्यवस्था को खत्म करने के लिए निरंतर दबाव डाला जा रहा था।
आजादी हासिल करने के बाद से विकासशील देशों द्वारा सार्वजनिक खरीद, भंडारण क्षमता एवं खाद्यान्न वितरण की व्यवस्था को स्थापित किया गया था ताकि अपनी आबादी के बड़े हिस्से में मौजूद गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके। विकासशील एवं तीसरी दुनिया के देशों द्वारा खेती के लिए इन प्रणालियों और कानूनों को अपनाए जाने के कारण पूँजीवादी देशों के लिए एक बाधा के तौर पर काम किया है:
1. अपने अनाज के अधिशेष के निपटान के लिए विकासशील देश के बाजारों तक अपनी पहुँच बना पाने के लिए;
2.उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों को खाद्य सुरक्षा और आत्मनिर्भरता के मामले में खत्म कर उन्हें लूटना और उन्हें खाद्य-आयात-निर्भर बनने की ओर धकेलना;
3.उष्णकटिबंधीय भूभाग के भूमि उपयोग पर अपने नियंत्रण को स्थापित करना, और;
4.तीसरी दुनिया की सरकारों की उष्णकटिबंधीय भूमि और खेती को वैश्विक व्यापार के लिए खुला छोड़ देने के लिए तैयार करना।
भारतीय सरकार द्वारा इन तीन कृषि कानूनों को अनवरत बढ़ावा देना विकसित पूँजीवादी देशों के इस साम्राज्यवादी एजेंडे के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का सूचक है। यह साबित करता है कि किसान समुदाय अपनी जमीन को खो देने की जिस आशंका से घिरा हुआ है, वह चिंता पूरी तरह से वाजिब है। सरकार के दुराग्रह को चुनौती देने वाली उनकी सामूहिक भावना इस बात का सबूत है कि वे भी अपनी जमीन को बचाने के मामले में उतने ही जिद पर अड़े हुए हैं।
इस लेख की लेखिका ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल रिसर्च में शोधकर्ता के तौर पर होने के साथ लेखिका हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। इनसे ट्विटर पर @shinzanijain पर संपर्क किया जा सकता है।
अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
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