यूपी चुनाव: मुसलमानों के नाम पर राजनीति फुल, टिकट और प्रतिनिधित्व- नाममात्र का

कहते हैं कि सरकारें बदलती हैं तो बदलाव का वादा करती हैं, लेकिन ग़ौर से देखा जाए तो, सत्ता में आने के बाद वो ख़ुद बदल जाती हैं, वादे जस के तस रह जाते हैं, यानी चुनावों से पहले नेताओं को ग़रीबों, दलितों, मुसलमानों के साथ-साथ उनके खाने और पहनावे से भी प्यार हो जाता है, यहां तक उनके हंसने, बोलने, चलने, इबादत करने तक की वजह पर ध्यान दिया जाता है, लेकिन कुर्सी संभालते ही नेताजी नीचे देखना बंद कर देते हैं। जिसमें सबसे ज्यादा अनदेखी का शिकार होता है मुसलमान।
भाजपा ने नहीं दिया एक भी मुसलमान को टिकट
यूपी चुनावों में महज़ कुछ दिन बचे हैं, हर पार्टी अपने-अपने उम्मीदवार घोषित कर रही है, ऐसे में अब तक भारतीय जनता पार्टी की ओर से एक भी मुसलमान प्रत्याशी घोषित न करना दो समुदायों के बीच में ध्रुवीकरण पैदा करने जैसा है। केवल भाजपा समर्थित अपना दल (एस) ने एक मुसलमान प्रत्याशी ज़रूर बनाया है, वह भी आज़म खान के बेटे से लड़ने के लिए।
अनुप्रिया पटेल के अपना दल से एक मुस्लिम प्रत्याशी हैं हैदर अली खान उर्फ हमज़ा मियां। ये वही शख्स हैं, जो कांग्रेस नेता नूर बानो के नाती हैं और पूर्व राज्य मंत्री नवाब काज़िम अली खान के बेटे हैं। लंदन से पढ़कर आए हैदर अली खान को आज़म खान के बेटे अब्दुल्ला आज़म खान के खिलाफ रामपुर की स्वार विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया गया है। जहां वो आज़म खान और उमर अब्दुल्ला खान पर लगातार हमलावर रहते हैं। हैदर अली भले ही भाजपा को सपोर्ट करते हों, लेकिन वो भाजपा के प्रत्याशी नहीं हैं।
योगी का ‘80 बनाम 20’
आपको याद होगा कि कुछ दिनों पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने’ 80 बनाम 20’ का फॉर्मूला दिया था। जिसमें ‘20’ को 20 प्रतिशत मुसलमानों के तौर पर देखा गया है, और अब यही सच भी साबित होता नज़र आ रहा है। हालांकि इस बयान को लेकर सियासत भी खूब हुई, लेकिन इन सबके बावजूद मुसलमानों का हाल वही बना हुआ है।
राजनीति में मुसलमानों की भागीदारी
साल 2017 के विधानसभा चुनाव में विधायक के तौर पर सिर्फ 23 मुसलमान चुने गए थे। यानी 403 सदस्यों की विधानसभा में सदस्यों के तौर पर मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 6.2 फीसदी ही है। यही नहीं, सबसे ज्यादा सीट जीतने वाली पार्टी यानी भाजपा का एक भी उम्मीदवार मुसलमान नहीं था।
भाजपा का उभार मुसलमानों पर हावी
पिछले तीन दशकों के चुनाव नतीजे बताते हैं कि विधानसभा में मुसलमानों की हिस्सेदारी का रिश्ता भारतीय जनता पार्टी के उभार से भी है। जब भी भारतीय जनता पार्टी की सीटें दूसरे दलों के मुकाबले काफी ज्यादा रहीं, मुसलमानों की हिस्सेदारी कम हुई। इस लिहाज से देखा जाए तो 1991 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जबरदस्त जीत के बाद मुसलमानों की हिस्सेदारी में काफी कमी आई थी। इस चुनाव में भाजपा ने अपने बल पर सरकार बनाई थी।
कब कितने मुस्लिम विधायक
आंकड़ों की मानें तो शुरू के चार विधानसभा चुनावों में मुसलमानों का प्रतिशत लगातार तेजी से गिरा, साल 1951-52 में हुए पहले चुनाव में उत्तर प्रदेश विधानसभा में 41 मुस्लिम विधायक जीते थे। वहीं, साल 1957 में 37, 1962 में 30 विधायक तो 1967 के विधानसभा चुनाव में 23 मुस्लिम विधायक जीते थे। 1969 में हुए चुनाव में 29 मुस्लिम विधायकों की जीत हुई थी, मगर 1974 के चुनाव में फिर गिरावट देखी गई और 25 विधायक ही जीत दर्ज कर पाए।
हालांकि, इसके बाद मुस्लिमों के रिप्रजेंटेशन में बढ़ोतरी देखी गई। 1977 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम विधायकों की संख्या बढ़कर 49 हो गई, आगे कई चुनावों तक कुछ उतार-चढ़ाव के साथ यही सिलसिला चलता रहा, मगर 1991 में राम मंदिर के मुद्दे की वजह से महज 17 मुस्लिम उम्मीदवार ही विधायक बने थे। हालांकि, उसके बाद चुनाव दर चुनाव मुस्लिम विधायकों की संख्या लगातार बढ़ती नजर आ रही थी। 1993 में 28, 1996 में 38 2002 में 64 मुस्लिम विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे। हालांकि साल 2007 यानी मायावती के शासनकाल में मुस्लिमों की भागीदारी में फिर कुछ कमी आई और इनकी संख्या 54 हो गई, लेकिन एक समय 2012 में मुस्लिम विधायकों की संख्या 69 पहुंच गई, मगर जैसे ही 2017 में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड जीत हुई, यह आंकड़ा 23 पर आ गया।
मुस्लिमों की संख्या 3.85 करोड़ (2011 की जनगणना)
भले ही राजनीति में मुस्लिमों की भागीदारी को ज्यादा तरजीह न दी जाती हो, लेकिन मुसलमान वोटर पूरे हक और अपनी मांगों को रखते हुए वोट करते हैं। मौजूदा वक्त में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या करीब 25 करोड़ होगी, मगर 2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश की कुल आबादी करीब 20 करोड़ है। जिसमें करीब 15.95 करोड़ हिंदू हैं, जो कुल आबादी का 79.73 फीसदी हैं। वहीं, मुस्लिमों की जनसंख्या करीब 3.85 करोड़ है, जो कि कुल आबादी का 19.28 फीसदी है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक
- यूपी की 143 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम वोटर का असर है।
- करीब 70 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम आबादी 20 से 30 प्रतिशत के बीच है।
- 43 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम आबादी 30 फीसदी से ज्यादा है।
- यूपी की 36 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम प्रत्याशी अपने बूते जीत हासिल कर सकते हैं।
- 107 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम जीत हार तय कर सकते हैं।
- मौजूदा विधानसभा में 23 मुस्लिम विधायक हैं, यह संख्या बीते 50 साल में सबसे कम है।
इस बार क्या करेंगे मुसलमान?
देखा जाए तो इस बार मुसलमानों के पास विकल्प हैं, पिछली बार की तरह उत्तर प्रदेश में इस बार कोई आंधी नहीं है, यानी मुसलमानों का एक बड़ा समूह समाजवादी पार्टी के साथ जा सकता है। इसके अलावा जिस तरह भाजपा अक्सर मुसलमानों को मध्यकाल से जोड़कर उनपर टिप्पणी करती है, तो उनका अपने मौजूदा वजूद और भविष्य के लिए परेशान होना लाज़मी है, ये हिस्सा भी भाजपा को बड़ा नुकसान पहुंचा सकता है। हालांकि बिना कोई टिकट दिए भाजपा का भी दावा है कि वह ‘सबका साथ-सबका विकास’ के तहत काम करती है, इसलिए मुसलमान भी उसके साथ हैं।
जाट-मुस्लिम भी जिताऊ समीकरण
उत्तर प्रदेश चुनावों की शुरुआत पश्चिमी उत्तर प्रदेश से होगी, जहां जाटों के साथ-साथ मुस्लिमों का भी खासा दबदबा है, ऐसे में पहला ही चरण बेहद दिलचस्प होने वाला है। आपको याद दिला दें कि 1969 में हुए मध्यावधि चुनाव में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में भारतीय क्रांति दल ने 98 सीटें जीतीं थीं, इस जीत में मुस्लिम समाज का बड़ा योगदान था। यहीं से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम के जिताऊ समीकरण की खोज हुई। यही समीकरण 2022 के चुनावों में बहुत अहम किरदार निभाने वाला है।
मुख्य धाराओं से दूर मुसलमान
आंकड़ों के लिहाज से साफ हैं, कि सियासत में मुसलमानों की घटती भागीदारी भारतीय जनता पार्टी का तेज़ी से उभार रहा है, लेकिन सिर्फ सियासत ही नहीं, संघ से प्रेरित भाजपा ने समाज की मुख्य धाराओं से भी मुसलमानों को दूर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कभी मुसलमानों की तुलना मुगलों से करना तो कभी पाकिस्तान जाने की सलाह देना, ये अक्सर भाजपा के नेता करते दिख जाते हैं। वहीं हाल ही के दिनों धर्म संसद के नाम पर जिस तरह से नफरत की आग लगाई जा रही है, वो भी किसी से छुपा नहीं है।
हिंदू राष्ट्र का प्रस्ताव पारित
पिछले दिनों प्रयागराज के ब्रह्मर्षि आश्रम में संत सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें सैकडों संतों ने भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया। इस दौरान लोगों से अपील की गई कि वो अब से हिन्दू राष्ट्र लिखना शुरू करें। हैरानी बात तो ये हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने धर्म संसदों पर रोक लगा रखी है, इसके बावजूद इसे आयोजित किया गया, हालांकि महज़ नाम में बदलाव कर दिया गया। इतना सब कुछ होने के बावजूद अभी कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
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