‘द ग्रेट इंडियन किचन’: पितृसत्ता के ब्राह्मणवादी स्वरूप को बेपरदा करती एक ज़रूरी फ़िल्म

औरत का किचन में होना किसी प्रकार का आश्चर्य ही नहीं पैदा करता है। कम से कम एक आम भारतीय परिवार में तो बिल्कुल भी नहीं। आश्चर्य तो दूर, किचन में जो औरतें हैं वे अदृश्य हैं और उनका श्रम कहीं गिना नहीं जाता है। ‘प्रेम का मार्ग स्वामी के पेट से होकर जाता है’ और स्वामी को भोजन स्वादिष्ट तभी लगता है जब, मिक्सर ग्राइन्डर की बजाय सिल-बट्टे पर चटनी पीसी जाए।
अमेजन प्राइम पर उपलब्ध जेओ बेबी की निर्देशित मलयाली फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ (2021) समकालीन सामाजिक व्यवस्था के पूर्वपक्ष पर विचार करती हुई एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है। पिछले कुछ सालों में, स्त्रीविषयक सिनेमा का दायरा बढ़ा है और कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर कई फिल्में भी बनी हैं, पर यह फिल्म स्त्री के इर्द-गिर्द बुने सामाजिक संरचनाओं के जटिल मकड़जाल का दृश्यांकन बहुत ही सावधानी, स्पष्टता और सूक्ष्मता से करती है।
एक हिन्दी भाषी होने के नाते यह फिल्म देखना आवश्यक है क्योंकि यह सिर्फ स्त्रियों के साथ हो रहे भेदभाव के स्वरूप पर ही नहीं फोकस करती बल्कि यह समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश करती है और इस तरह के दृष्टिकोण का हिन्दी भाषी सिनेमा में एक अभाव दिखता है।
सामान्यतः,अन्य स्त्री विषयक फिल्मों में दिखाए गए मर्दवादी शोषण का तरीका बलप्रयोग और दबाव होता है, वहीं यह फिल्म घर में स्त्रियों के जीवंत अनुभवों को दिखाने में सफल रही है, जहाँ कोई बलप्रयोग नहीं है बल्कि सब प्रेम से रहते हैं। वह पुरुष जो खुद को पितृसत्ता का हिस्सा नहीं मानते पर वे खुद अपने दैनिक जीवन में कितने पितृसत्तात्मक हो सकते हैं। मसलन, जब वे कहते हैं कि आज खाना वे बनाएंगे और वे खाना बनाने के बाद किचन गंदा ही छोड़ देते हैं, घर में पानी तक खुद से नहीं लेते, मना करने के बाद भी जबरन शारीरिक संबंध बनाते हैं और यह सब होता है प्रेम के नाम पर। फिल्म में ऐसे अनेक दृश्य हैं जो हर दिन हमारे अपने घरों में देखने को मिलते रहते हैं।
स्त्री विषयक फिल्मों में, किचन में श्रम कर रही स्त्री की स्थिति को बेहद ही सतही तौर पर देखा गया है या देखा ही नहीं गया है। फिल्मों में स्त्री विमर्श या तो लोक वृत में होता है या घर के बैठके में होता है। पर इस फिल्म का पूरा सेट ही केरल के एक उच्च-जातीय, नायर समुदाय के मध्यमवर्गीय परिवार का किचन है। किचन को विमर्श का दायरा बनाना इस फिल्म को बाकी फिल्मों से अलग बनाता है। फिल्म में मुख्य किरदार तीन हैं; घर की बहू, उसका पति और उसका ससुर।
फिल्म में पति का किरदार अध्यापक है जो एक दृश्य में परिवार के बारे में पढ़ाते हुए इसे समाज का मौलिक इकाई बताता है जो विवाह पर आधारित होती है। पर फिल्म में विवाह की पूरी जिम्मेदारी स्त्री पर आ जाती है। अगर उसे विवाह बचाना है तो उसे उसके लिए बनाए गए किरदार में रहना ही होगा और स्त्री उसे स्वीकार भी कर लेती है। उसे हर बार अपने शोषण के बाद उसके पति का प्यार-दुलार से मना लेने को वह समस्या का ही हिस्सा नहीं समझती है। ससुर कभी ऊँची आवाज में बात तक नहीं करते लेकिन परंपरा और ईश्वर की दुहाई देकर हर बार उसे टोकते रहते हैं। शोषितों से उनके शोषण के लिए बनाए गए मूल्यों और मान्यताओं को वैधता और स्वीकृति लेकर ही विचारधाराएं अपना प्रभुत्व स्थापित करती हैं। सामान्यतः, जहां अन्य फिल्मों में स्त्रियाँ अपने शोषण को लेकर सजग होती हैं और उसका विरोध करती दिखती हैं, वहीं इस फिल्म में स्त्री किरदारों ने इसको स्वीकृति दी है और मुख्य नायिका खुद एक समय के बाद ही इसको लेकर सजग हो पाती है और इसके खिलाफ खड़ी होती है।
पूरी फिल्म में सिर्फ पितृसत्ता अकेले न होकर ब्राह्मणवादी स्वरूप में है। पवित्र और दूषित ब्राह्मणवाद का सबसे प्रमुख शोषण का यंत्र है। ब्राह्मणवाद के लिए शरीर में जो कुछ जाता है और जो शरीर से बाहर आता है, दोनों के लिए अलग अलग श्रेणियाँ हैं। शरीर में जाने वाला सबकुछ पवित्र होना चाहिए और शरीर से बाहर आने वाला सबकुछ दूषित होता है। यह स्वच्छता और गंदगी से अलग है। फिल्म में इसको बेहतर तरीके से दिखाया गया है।
फिल्म में स्त्री स्वच्छ तो है पर पीरिएड्स के दौरान स्वच्छ होते हुए भी दूषित है और इसलिए किचन में नहीं जा सकती जो कि गंदा होने के बाद भी पवित्र है, ना ही उन पवित्र पुरुषों को छू सकती है जिनके खाने का तरीका गंदा है। सिर्फ इतना ही नहीं पीरिएड्स के दौरान उसको सबसे अलग एक कमरे में रहना पड़ता है। फिल्म में स्त्री सिर्फ इसलिए शोषित नहीं होती कि वह स्त्री है बल्कि साथ में इसलिए भी शोषित होती है कि वह अस्पृश्य भी है। भेदभाव के इस स्वरूप को इंटरसेक्शनालिटी कहा जाता है।
फिल्म में, घर के मुखिया को अपना घर पारंपरिक तरीके से रखना है। इसीलिए उसे प्रेशर कुकर में बना चावल पसंद नहीं, उसे चूल्हे पर बना चावल स्वादिष्ट लगता है। मिक्सी की चटनी की बजाय सिल-बट्टे की चटनी स्वादिष्ट लगती है, वाशिंग मशीन में उसके कपड़े जल्दी फट जाते हैं तो हाथ से धोना है, बचा हुआ खाना नहीं खाना क्योंकि वह अशुद्ध है। उसके यहाँ स्त्रियाँ नौकरी नहीं करतीं बल्कि घर संभालती हैं, इसलिए वह अपनी बहू को नौकरी अप्लाई करने से मना करता है। पारंपरिकता का शिकार हमेशा हाशिये पर स्थित समुदाय होता है।
एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है केरल की सामाजिक व्यवस्था और सबरीमाला का संदर्भ। नायर समुदाय एक प्रभावशाली समुदाय है। यह केरल के सामाजिक व्यवस्था में ऐतिहासिक रूप से शूद्र या ओबीसी रहा है जो केरल नंबूदरी ब्राह्मण जाति के करीब रहा है और उनके घरेलू काम-काज करता रहा है पर उनसे निम्न रहा है। फिल्म में नायर परिवार के पुरुष ब्राह्मण रीति-रिवाजों और कर्मकांडों का पालन करते हैं। नायर समुदाय ऐतिहासिक रूप से शोषित रहा है पर सामाजिक रूप से ऊपर उठने के बाद वह आज शोषक के ही मूल्यों को स्वीकार करके खुद भी शोषक बन गया है। ऐसे ही फिल्म में स्त्री द्वारा ही अन्य स्त्री का शोषण किया जा रहा है। फिल्म में शोषक और शोषित के बीच में कोई स्पष्ट भेद नहीं रखा गया है, जहां शोषित भी शोषक है।
यह फिल्म स्पष्ट तौर पर शोषण और भेदभाव के विभिन्न स्तरों को बखूबी दिखाती है। फिल्म का नाम ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ इसीलिए है क्योंकि भले ही ये स्तर भिन्न हों या भेदभाव का स्वरूप अलग-अलग हो पर किचन में आकर यह पूरे भारत के लिए एक जैसा ही हो जाता है, जहां सभी स्त्रियों के अनुभव एक जैसे हो जाते हैं। हालांकि, फिल्म का अंत एक उम्मीद की ओर इशारा करता है।
(लेखक एक छात्र और स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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