"दूर हूँ प्रश्न से, भक्त हूँ स्वप्न से, मैं नहीं जागता, मैं नहीं जागता..."

सूट उसका भले लाख ही में सिले
देश सारा ही तिल तिल के क्यूँ न जले
चाहे लिंचर से जा के वो मिल ले गले
दूर हूँ प्रश्न से,
भक्त हूँ स्वप्न से
मैं नहीं जागता, मैं नहीं जागता
देश छोटा है धर्म और सरकार से
और सरकार छोटी है बाज़ार से
मैं तो बुद्धि भी जोड़ आया आधार से
देश रोता रहे
लिंच होता रहे
मैं नहीं जागता, मैं नहीं जागता
डंडे शाखा पे खिलने लगे, तुम सहो
ठेले भजिए के चलने लगे, तुम सहो
पेंट संघी भी सिलने लगे, तुम सहो
चाहे दंगे चलें
चाकू नंगे चलें
मैं नहीं जागता, मैं नहीं जागता
तांगे के घोड़े जैसा है मेरा भी व्यू
कॉन्स्टिट्यूशन है क्या ये नहीं मुझको क्लू
सोने दो मुझको आख़िर जगाते हो क्यूँ
जल रहे हैं शहर
जानता हूँ मगर
मैं नहीं जागता, मैं नहीं जागता
- पुनीत शर्मा
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