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न्गूगी वा थ्योंगो को मातृभाषा में लिखने के कारण जेल जाना पड़ा

प्रगतिशील लेखक संघ, पटना ने किया न्गूगी वा थ्योंगो की स्मृति का आयोजन किया गया।
PWA

पटना: महान अफ्रीकी साहित्यकार न्गूगी वा थ्योंगो की स्मृति सभा का आयोजन पटना प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) की ओर से किया गया। मैत्री शांति भवन में आयोजित इस कार्यक्रम में पटना शहर के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, रंगकर्मी मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन पटना प्रलेस के कार्यकारी सचिव जयप्रकाश ने किया।

जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में अफ्रीकन स्टडीज के प्रोफ़ेसर रहे सुबोध नारायण मालाकर ने अपने संबोधन में कहा '' न्गूगी वा थ्योंगो  केन्या के रहने वाले थे। 1938 में उनका जन्म हुआ था और 87 वर्ष की अवस्था में मृत्यु हुई। न्गूगी वा थ्योंगो को समझने के लिए अफ्रीका को समझना होगा। अफ्रीका में 54 देश है और लगभग बत्तीस सौ भाषाएं बोली जाती हैं। सबकी अलग-अलग विशेषता है। केन्या अफ्रीका के उत्तरी-पूर्वी इलाके में है। केन्या की आज़ादी की लड़ाई में भारत के भी लोगों  ख़ासकर गुजरातियों  का योगदान था। 

उपनिवेश का मतलब होता है दूसरे के कच्चे संसाधनों पर नियंत्रण करना। केन्या को इसी प्रक्रिया में उपनिवेश बना। औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी गई।  न्गूगी वा थ्योंगो  के परिवार की जमीन को 1915 में  छीन लिया गया। जमीन का सवाल केन्या में वर्गीय सवाल बन गया। बहुत बड़ा आंदोलन हुआ जिसे मउ-मउ आंदोलन कहा जाता है। मउ-मउ आंदोलन का गहरा प्रभाव न्गूगी वा थ्योंगो पर पड़ा। 1964 में उनका पहला उपन्यास आया ' वीप नौट चाईल्ड'। ब्लैक हरमिट उनका प्रसिद्ध नाटक था जो बहुत लोकप्रिय हुआ। उन्हें कई सम्मान भी प्राप्त हुए। 

वे कहा करते थे कि गिकियू भाषा में लिखना चाहिए ताकि आम लोग समझ सकें। अंग्रेज़ जब अफ्रीका में सिविलजेसिंग मिशन के नाम पर बड़े भाई की भूमिका अदा करते हुए केन्या के लोगों को सभ्य बनाने की बात करते थे। इस प्रक्रिया में केन्या में एक ऐसे एलीट का अभ्युदय हुआ जिसके हित साम्राज़्यवाद से जुड़े थे। अफ्रीका में बड़े-बड़े लेखकों ने अपनी शहादत दी थी। न्गूगी वा थ्योंगो ने मार्क्सवाद  को नये सिरे से समझकर अपने देश में लागू किया। न्गूगी वा थ्योंगो  ने कॉलोनीयल माइंडसेट के खिलाफ लड़ाई लड़ी जिसके अनुसार अपने उपनिवेश बनाने वालों की तरह बोलेंगे और बात करेंगे तो ज्यादा इज़्ज़त मिलेगी। एलीट का प्रॉपगेंडा वैल्यू रहता है। उसका बहुत प्रभाव किसी देश पर रहा करता है। "

पटना साइंस कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक शोवन चक्रवर्ती ने कहा " न्गूगी वा थ्योंगो मार्क्सवादी साहित्यकार थे। वे खाली लिखने का काम नहीं करते थे। साहित्य लिखने के कारण उनको क्या-क्या नहीं सहना पड़ा, उन्हें जेल जाना पड़ा, उनपर हमला किया गया, उनकी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार किया गया। पोस्ट कॉलोनीयालीज्म युग में सरकार चलाने के तौर-तरीके वही कॉलोनीयल युग के ही रहा करते हैं इसकी उन्होंने बहुत आलोचना की। उन्होंने केन्या की अपनी भाषा गिकियू में लिखना शुरू किया। अंग्रेज़ी में लिखकर सही मायने में आजादी नहीं मिल सकती। 1977 में उनके नाटक 'आई विलेज मैरी, व्हेन आई वांट'  हिंदी फ़िल्म 'दो बीघा जमीन'  का ढांचा उससे मिलता जुलता होता है। नाटक के सफल होने का कारण था कि आज तक कॉलोनियल नीतियों को लागू किया जाता रहा है। सरकार के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मदद से न सिर्फ देश की सम्पदा बल्कि संस्कृति को भी नष्ट करने की कोशिश की जाती है। 

2018 में न्गूगी वा थ्योंगो भारत आये थे। तब रंगकर्मी सुधन्वा देश पांडे ने उनसे बातचीत लम्बी बातचीत की था। उसमें बताया था कि जेल में  कड़ा और मोटा टायलट पेपर दिया जाता था ताकि उन्हें अपमानित किया जाता था। लेकिन हमने उसी टायलट पेपर पर लिखकर अपने दुश्मनों को जवाब दिया। कल्चरल रेजिसटेंस के साथ फिजिकल रेजिस्टेंस करने की जरूरत है। घर की भाषा में काम होना चाहिए। "

एमीटी  विश्विद्यालय में लॉ फैकल्टी के डीन राजीव रंजना ने कहा " व्हाइट मैंस बर्डन के सिद्धांत के तहत काले लोगों को गुलाम बनाया गया। 1986 में न्गूगी वा थ्योंगो ने 'डिकोलोनार्जिंग द माइंड'  जैसी किताब लिखी। किताब के पहले हिस्से में बताते हैं कि हम गुलाम कैसे हुए और फिर दूसरे भाग में हम गुलामी से मुक्त कैसे होंगे इस पर चर्चा हुई। उपनिवेशवाद शिक्षा पर कब्ज़ा कर लेता है। यदि आपको अंग्रेजी भाषा नहीं आती तो आपको रोजगार तक के लाले पड़ जाते हैं। यह सब औपनिवेशिक प्रभाव के कारण होता है। इसके कारण अपने समाज और संस्कृति के प्रति हीनता का बोध पैदा हो जाता है। हमारा समाज एक आज्ञापालक समाज रहे। इसलिए सबसे जरूरी है कि अपने मस्तिष्क को डिकॉलोनाइज किया जाए। इसके लिए ऐसी शिक्षा पद्धति बनानी होगी जो उपनिवेशवाद से लड़ सके।"

संस्कृतिकर्मी और लेखक अनीश अंकुर ने अपने सम्बोधन में कहा " न्गूगी वा थ्योंगो अंग्रेजी के प्रतिष्ठित लेखक थे लेकिन अंग्रेज़ी छोड़कर गिकियू भाषा में लिखने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। न्गूगी वा थ्योंगो  का कहना था कि आप तमाम भाषाएं जानते हैँ और अपनी मातृभाषा नहीं जानते तो यह गुलामी है। भाषाई सशक्तीकरण तब होता है जब आप मातृभाषा के बाद दूसरी भाषायें सीखते हैं। न्गूगी वा थ्योंगो का मानना था कि यदि कोई देश उपनिवेशवाद और साम्राज़्यवाद से मुक्त होकर  स्वतंत्र  हुआ है परन्तु भाषा अभी भी उपनिवेश वादी दौर की चल रही है तो वह देश फिर से साम्राज़्यवाद के चंगुल में फंस जा सकता है। गुलाम देशों के जिन नेताओं ने अपने देश के भाषा की वकालत की उनमें से कईयों  की उसी कारण से हत्या कर दी गई।  न्गूगी वा थ्योंगो सोवियत संघ से बहुत प्रभावित थे और अपना मशहूर उपन्यास 'पेटल्स ऑफ ब्लड'  रूस के चेखव हाउस में पूरा किया था। उनको गिरफ्तार करने के एक कारण उनका सोवियत संघ से संबंध भी था। सोवियत संघ से प्रेरित अफ्रीका और एशियाई लेखकों के सम्मेलन में भाग लेने बेरुत और कजाकिस्तान गए थे।उन्होंने 1969 में नौरोबी विश्व विद्यालय से अंग्रेज़ी विभाग को समाप्त कर दिया और एशिया, अफ्रीका और लैतिन अमेरिका के साहित्य को जगह दीं। वे भारत के मुल्कराज आनंद तथा फैज़ अहमद फैज़ से प्रभावित थे। वे फ़्रॉज फैनन से प्रभावित थे। "

कार्यक्रम की सामाजिक कार्यकर्ता सतीश कुमार ने कहा "न्गूगी वा थ्योंगो  का कहना था कि जब दूसरी भाषा में पढ़ाई करते हैं तो अपनी जड़ों से कट जाते हैं। घर में भात दाल खाते हैं और स्कूल में राइस खाते हैं। ऐसी ही औपनिवेशिक लूट को समझ नहीं पाते हैँ। भाषा में अपनी पढ़ाई को लेकर आग्रही थे। जिस समाज में अपनी भाषा में अपनी पीड़ा को व्यक्त नहीं करते। मुकदमा हम अपनी भाषा में व्यक्त नहीं करते। इसलिए चार भाषा पढ़ाने का फार्मूला दिया गया।"

कार्यक्रम की अध्यक्षता 'प्राच्य प्रभा' के सम्पादक  विजय कुमार सिंह ने की। स्मृति सभा में प्रमुख लोगों में कुलभूषण गोपाल, रवीन्द्रनाथ राय, आशीष रंजन, मनोज कुमार, प्रो सुधीर कुमार, प्रशांत सुमन, सुजीत कुमार, एआईएसएफ नेता  सतीश कुमार, राजीव रंजन, कपिलदेव वर्मा, अभिषेक विद्रोही आदि मौजूद थे। 

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