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नेपाल आंदोलन: छोटे देशों से बड़ी सीख

नेपाल के आंदोलन से भारत समेत बाकी देशों को सीखने के लिए यह है कि देश की जनता की उम्मीदों को मत कुचलो। उनके मौलिक अधिकारों का हनन मत करो।
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नेपाल में अंतरिम सरकार बन गई है। वहां की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया गया है। शुक्रवार को कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने कहा कि आठ अगस्त को युवा प्रदर्शनकारियों द्वारा शुरू किये गये आंदोलन में मारे गये लोगों को शहीद घोषित किया जाएगा। साथ ही पीड़ितों के परिजनों को दस-दस लाख रुपये का मुआवजा भी दिया जाएगा। अब तक आंदोलन में मारे गए लोगों की संख्या 72 हो गई है, जिनमें एक भारतीय महिला और तीन पुलिसकर्मी भी हैं।

सुशीला कार्की को ईमानदार छवि वाला न्यायाधीश माना जाता है। उनका जन्म 7 जून 1952 को नेपाल के विराटनगर में हुआ था। उन्होंने 1972 में विराटनगर से स्नातक की डिग्री हासिल की और 1975 में भारत में काशी हिंदू विश्वविद्यालय ( बीएचयू ) से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री पायी। उन्होंने 1978 में त्रिभुवन विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल की और 1979 में विराटनगर में प्रैक्टिस शुरू कर दी।

उनकी न्यायिक यात्रा में अहम पड़ाव 2009 में आया। सुशीला कार्की ने नेपाली कांग्रेस के नेता दुर्गा सुबैदी से शादी की है। वे मानती हैं कि उनके पति के सहयोग और उनकी ईमानदारी ने वकील से मुख्य न्यायाधीश तक पहुंचने में अहम भूमिका निभाई। विराट नगर और धरान में तीन दशकों से ज्यादा समय तक वकालत करने के बाद उन्होंने सीधे सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के रूप में प्रवेश किया। वे पहली बार तब सुर्खियों में आईं जब उन्होंने कांग्रेस नेता जेपी गुप्ता को संचार मंत्री रहते हुए भ्रष्टाचार के एक मामले में दोषी ठहराया। हालांकि 11 महीने के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अपने कार्यकाल में उन्हें महाभियोग का सामना करना पड़ा। अप्रैल 2017 में उस समय की सरकार ने संसद में उनके खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव रखा। उन पर आरोप था कि उन्होंने पक्षपात किया और सरकार के काम में दखल दिया। प्रस्ताव आने के बाद जांच पूरी होने तक उन्हें मुख्य न्यायाधीश के पद से निलंबित कर दिया गया। इस दौरान नेपाली जनता ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज उठाई और सुप्रीम कोर्ट ने संसद की कार्यवाही को आगे बढ़ाने से रोक दिया। बढ़ते दबाव के कारण संसद को अपना प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। उस घटना के बाद सुशीला कार्की की छवि ईमानदार और सत्ता के सामने न झुकने वाले न्यायाधीश के रूप में उभरी। यही वजह थी कि युवा आंदोलनकारियों ने अंतरिम सरकार के मुखिया के तौर पर उनके नाम पर सहमति जताई।

एक भारतीय टीवी चैनल से बीतचीत में सुशीला कार्की ने कहा कि युवा आंदोलनकारियों ने उन पर विश्वास जताया है। वे चाहते हैं कि देश में चुनाव कराये जाएं और देश को अराजकता से निकाला जाए। मैंने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। उन्होने कहा कि आंदोलनकारियों की पहली मांग प्रधानमंत्री का इस्तीफा थी जो पूरी हो चुकी है और उनकी अगली मांग देश से भ्रष्टाचार समाप्त करने की है। लेकिन उनकी ये और बाकी मांगें तभी पूरी हो सकती हैं जब नई सरकार बने। मैं अपने पद पर ज्यादा समय तक नहीं रहूंगी और जल्दी ही देश में चुनाव कराउंगी। उन्होंने देश में चुनाव की तारीख अगले साल पांच मार्च तय की है।

भारत के प्रति झुकाव के बारे में उन्होंने बहुत साफ-साफ कहा कि उन्होने बनारस हिंदू युनिवर्सिटी से पढ़ाई की है। वहां की बहुत सी यादें हैं। मैं अपने शिक्षकों, दोस्तों को अब भी याद करती हूं। गंगा नदी और उसके किनारे हॉस्टल और गर्मियों की रातों में छत पर बैठकर गंगा को निहारना मुझे अब भी याद है। उन्होंने यह भी कहा कि वे विराटनगर की रहने वाली हैं जो भारत की सीमा से काफी नजदीक है। अधिक से अधिक 25-30 किलो मीटर। मैं नियमित रूप से बॉर्डर मार्केट जाती थी। मैं हिंदी आराम से बोल सकती हूं। उन्होंने आगे यह भी कहा कि भारत-नेपाल के रिश्ते बहुत पुराने हैं। मेरे बहुत से रिश्तेदार और परिचित भारत में हैं। अगर वहां कुछ होता है तो हमें भी आंसू आते हैं। जाहिर है सुशीला कार्की का भारत के प्रति यह लगाव बिगड़े भारतीय संबंधों को फिर से पटरी पर लाने में मदद कर सकता है।

पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को आम तौर पर अराजनीतिक और अपने मोबाइल और लैपटॉप की दुनिया में खोई रहने वाली समझती है। लेकिन नई पीढ़ी ने साबित किया है कि वह सिर्फ आत्मकेंद्रित नहीं बल्कि अपने अधिकारों, कर्तव्यों और देश का भला सोचने वाली भी है। भारत के पड़ोसी देशों पहले श्रीलंका फिर बांग्लादेश और नेपाल के युवाओं ने साबित किया है कि वे अपने देश के लिए उतने ही जागरूक हैं जितनी पुरानी पीढ़ी। जब इन जगहों पर भ्रष्टाचार, मनमानापन और तानाशाही लाइलाज हो गई तो नई पीढ़ी ही सड़क पर उतरी। 

नेपाल में भी इस आंदोलन को जेन ज़ी (जेन-जेड) के नाम से ही जाना गया। यह जेन जेड क्या है ? आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा और हंसी भी आ सकती है। क्योंकि नई पीढ़ी ने नामकरण अपने हिसाब से किया है। जैसे बेबी बूमर्स। यह वह पीढ़ी है जिसका जन्म द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1946 से 1964 के बीच हुआ है। इसके बाद 1965 से 1980 के बीच पैदा होने वाले लोगों को नई पीढ़ी जेनरेशन एक्स कहलाती है। इस नामकरण के पीछे नई पीढ़ी का भाव यह है कि ये वो पीढ़ी है जो टीवी और शुरुआती कंप्यूटर के दौर में पैदा हुई है। 1981 से 1996 के बीच पैदा हुई पीढ़ी को जेन वाई का नाम दिया गया है जिसमें इंटरनेट, ग्लोबलाइजेशन और मोबाइल टेक्नॉलॉजी का दौर शामिल है। 1997 से 2012 के बीच पैदा होने वाली पीढ़ी जेन जेड है। इसी पीढ़ी ने नेपाल में आंदोलन शुरू किया और महज दो-तीन दिनों में सरकार बदल दी। 2012 से 2025 के बीच पैदा हुए लोगों को जेन ए ( जेनरेशन अल्फा ) कहा जाता है और 2025 के बाद पैदा होने वालों को जेन बी यानी जेनरेशन बीटा कहा जाएगा।  ग्रेटर नोएडा में मैंने जब कुछ सेक्टरों के नाम अल्फा, बीटा आदि सुने तो समझ में नहीं आया कि ये क्या हैं लेकिन अब बखूबी समझ सकता हूं कि ये इंदिरा नगर या राजीव कॉलोनी जैसे पुराने नाम नहीं बल्कि आधुनिक नाम हैं।

नेपाल की युवा पीढ़ी भारत और बाकी पड़ोसी देशों की तुलना में थोड़ा और अलग है। भारत और दूसरे देशों के युवा अपनी देश की समस्याओं को लेकर ही आंदोलन खड़े करते हैं लेकिन नेपाल के युवा दूसरे देश में घटित हो रही घटनाओं का अपने देश में हो रही घटनाओं से तुलना करते हैं और उसके अनुसार कार्य करते हैं। आप उस दौर को याद करिये जब पाकिस्तान में तत्कालीन प्रधानमंत्री भुट्टो को फांसी दी गई थी। तब भारत, श्रीलंका, बांग्लादेश में सिर्फ जुबानी प्रतिक्रियाएं सामने आईं जबकि नेपाली छात्रों ने उसे अपने देश के हालात से जोड़ा और वहां छात्र आंदोलन शुरू कर दिया। उन्हें लगा कि उनके देश में भी तानाशाही का यह रूप देखने को मिल सकता है।

1979 में भुट्टो को फांसी दी गई। उसके विरोध में नेपाली छात्रों ने पहली बार संगठित आंदोलन की शुरूआत की। चार अप्रैल 1979 को भुट्टो को फांसी दी गई और छह अप्रैल को उन्होंने अपने यहां आंदोलन शुरू कर दिया। इसके लिए राष्ट्रवादी स्वतंत्र विद्यार्थी मंडल बनाया। नौ अप्रैल तक आंदोलन बहुत तेज हो गया। तब नेपाल के राजा वीरेंद्र ने आंदोलनकारी छात्रों का मुकाबला करने के लिए अपनी ओर से छात्रों का एक संगठन खड़ा किया। पर आंदोलकारी छात्र शासन के काबू में नहीं आये। उन्होने शाही सरकार के सामने अपनी 25 सूत्री मांगें पेश कीं जिसके सामने सरकार को झुकना पड़ा। 

नेपाल के आंदोलन से भारत समेत बाकी देशों को सीखने के लिए यह है कि देश की जनता की उम्मीदों को मत कुचलो। उनके मौलिक अधिकारों का हनन मत करो। जो उन्हें संविधान में स्वतंत्रता दी गई है उसका सम्मान करो। वरना नेपाल जैसा आंदोलन कभी भी भड़क सकता है। हालांकि आंदोलनकारियों पर जिस तरह की हिंसा हुई और बाद में प्रदर्शनकारियों ने जिस तरह की हिंसा की उसका कोई समर्थन नहीं कर सकता, लेकिन यह आंदोलन सबके लिए एक सबक है। 

नेपाल में भी देखने में बस यह लगता है कि सोशल मीडिया पर बैन लगाया गया और आंदोलन भड़क उठा। दरअसल यह महज इतने भर का मामला नहीं है। नेपाली जनता महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से परेशान थी। बावजूद इसके वह खामोश थी। वह अपने दुख-दर्द सोशल मीडिया पर जाहिर कर ले रही थी। लेकिन जब सोशल मीडिया पर भी पाबंदी लगा दी गई तो उसे लगा कि सरकार तो हद कर रही है। वह उनके लिए बाकी कुछ तो नहीं ही कर रही है उनकी अभिव्यक्ति की आजादी पर भी कुठाराघात कर रही है। फिर क्या था, वे उठ खड़े हुए।

भारत में भी सत्ताधारी लोगों और उनके समर्थकों को लग रहा है कि नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका अपेक्षाकृत बहुत छोटे देश हैं। वहां आंदोलन खड़ा करके सरकार बदली जा सकती है, भारत में नहीं क्योंकि इसका आकार भी बड़ा है और आबादी भी। लेकिन ऐसा सोचने वाले बड़ी भूल कर रहे हैं। इसी देश ने अंग्रेजों जैसी ताकतवर शक्ति को इस देश से भगाया है। ताकतवर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इमरजेंसी हटाने पर विवश किया है। आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में अपने-अपने हकों के लिए आंदोलन हो रहे हैं। बिहार में चुनावी सर्वे को लेकर, महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन को लेकर, असम में आंदोलन चल रहा है। मणिपुर जल ही रहा है, दक्षिण के राज्यों में जनगणना को लेकर एक अलग तरह की बेचैनी है जिसमें उनके लोक सभा सीटों की संख्या उत्तर भारत की तुलना में बहुत ही नकारात्मक रूप से प्रभावित होने वाली है। बस इन सब आंदोलनों को महात्मा गांधी की तरह एक साथ जोड़ने की देर है। आंदोलन पूरा राष्ट्रव्यापी हो सकता है। इसलिए भारतीय सत्ता पक्ष को नेपाल के आंदोलन से सबक लेने की जरूरत है। लोगों के अधिकारों का सम्मान करने की जरूरत है।  

अभी हालत क्या है ? आप अपनी मांगें सरकार के सामने रखते हैं तो आपकी उपेक्षा कर दी जाती है। सवाल पूछते हैं तो देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है। शांति पूर्ण ढंग से धरना प्रदर्शन करना चाहते हैं तो इजाजत नहीं दी जाती। दी जाती है तो ऐसी जगह जहां लोगों का पहुंचना ही मुश्किल होता है। शहर से एकदम बाहर। प्रधानमंत्री का कहीं दौरा होता है तो पूरे शहर को बंधक बना लिया जाता है और विपक्षी नेताओं को हाउस अरेस्ट कर लिया जाता है। अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अपने चुनावी क्षेत्र वाराणसी में पहुंचे तो कांग्रेस के सारे नेताओं को हाउस अरेस्ट कर लिया गया ताकि वे उनका विरोध न कर सकें। आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह कश्मीर में एक प्रेस कांफ्रेंस करना चाहते थे, उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी गई। उन्हें हाउस अरेस्ट कर दिया गया। सरकार के खिलाफ अगर कोई पत्रकार या आम आदमी सोशल मीडिया पर कुछ भी लिखता है तो उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उसे जेल के सीखचों के भीतर कर दिया जाता है। भारत सरकार को विपक्ष और आम लोगों को भी स्पेस देना चाहिए। ताकि उनके मन का गुबार निकलता रहे। कहीं ऐसा न हो कि एक दिन इनके सब्र का बांध भी टूट जाए और नेपाल जैसा आंदोलन खड़ा हो जाए। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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