मुनव्वर राना: हम अपनी क़ब्र-ए-मुक़र्रर में जा के लेट गए

थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए
हम अपनी क़ब्र-ए-मुक़र्रर में जा के लेट गए
तमाम उम्र हम इक दूसरे से लड़ते रहे
मगर मरे तो बराबर में जा के लेट गए
मशहूर शायर मुनव्वर राना लखनऊ की सरज़मीं में दफ़्न हो गए। इसी ख़्वाहिश के साथ कि
नए मिज़ाज के शहरों में जी नहीं लगता
पुराने वक़्तों का फिर से मैं लखनऊ हो जाऊं
इस ऐलान के साथ कि
मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
अब इस से ज़ियादा मैं तिरा हो नहीं सकता
मुनव्वर राना मंच के बड़े शायर। मुशायरों की शान। एक कामयाब शायर। कई सम्मानों से सम्मानित।
हम को मा'लूम है शोहरत की बुलंदी हमने
क़ब्र की मिट्टी का देखा है बराबर होना
वाकई मुनव्वर साहब ने शोहरत की बुलंदी देखी। और अब हम मिट्टी का बराबर होना देख रहे हैं। 71 साल की उम्र में मुनव्वर राना हमें छोड़कर चले गए। इतवार, 14 जनवरी की रात उन्होंने लखनऊ के अस्पताल में आख़िरी सांस ली। वह पिछले काफी समय से गले के कैंसर से पीड़ित थे। उनका पिछले एक सप्ताह से एसजीपीजीआई में इलाज जारी था।
वर्ष 1952 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जन्मे मुनव्वर राना मुशायरों के कामयाब शायर थे। बशीर बद्र, वसीम बरेलवी, निदा फ़ाज़ली, बेकल उत्साही, राहत इंदौरी, मुनव्वर राना इन्हीं सब शायरों को बचपन से मुशायरों में सुनते हुए मैं बड़ा हुआ। मुनव्वर राना का मंच पर पढ़ने का अंदाज़ भी राहत इंदौरी की तरह बेहद नाटकीय था। हालांकि मुनव्वर का अंदाज राहत से अलग था। बेहद भावुक अंदाज़ में वे शे’र पढ़ते थे। अच्छे संपन्न व्यक्ति थे। लेकिन अपने अशआर से लोगों को भाव विह्वल कर देते थे-
ऐ ग़रीबी देख रस्ते में हमें मत छोड़ना
ऐ अमीरी दूर रह नापाक हो जाएंगे हम
मुनव्वर साहब को सबसे ज़्यादा ‘मां’ के लिए कहे गए शे’र के लिए याद किया जाता है। जैसे दुष्यंत कुमार ग़ज़ल को ग़म-ए-जानां से निकाल कर ग़म-ए-दौरां तक ले आए, जैसे अदम गोंडवी ग़ज़ल को दरबारों से निकालकर खेत-खलियान तक ले गए उसी तरह मुनव्वर राना ग़ज़ल को महबूब के साथ गुफ़्तगू से आगे बढ़कर मां-बहन-बेटी के प्रेम तक ले गए।
चलती फिरती हुई आंखों से अज़ां देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है मां देखी है
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू
मुद्दतों मां ने नहीं धोया दुपट्टा अपना
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं
क्या बेहतरीन शे'र कहा है—
'मुनव्वर' मां के आगे यूं कभी खुलकर नहीं रोना
जहां बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
ग़ज़ल वह सिन्फ़-ए-नाज़ुक़ है जिसे अपनी रफ़ाक़त से
वो महबूबा बना लेता है मैं बेटी बनाता हूं
यह एक नया और बेहतरीन काम था, लेकिन मुनव्वर ने अपनी ग़ज़ल को महबूब के इश्क़ से तो आज़ाद कर लिया लेकिन मां-बहन-बेटी को उनकी पुरानी छवि से आज़ाद नहीं करा पाए। वे उनकी महिमा गाते हुए, क़सीदे पढ़ते हुए उन्हें उन्हीं रवायतों, उन्हीं ज़ंजीरों, उन्हीं रुढ़ियों में जकड़े रहे जो हमेशा से चली आ रही थीं, जिन्हें तोड़ना ज़रूरी था।
मुनव्वर ने मां की शान में ख़ूब कहा, बहन-बेटियों की बातें तो ख़ूब कीं लेकिन वो नज़र, वो नज़रिया, वो हिम्मत नहीं दिखा पाए जो कैफ़ी आज़मी के यहां मिलती है जिसमें वो कहते हैं कि– उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
मुनव्वर मां-बहन-बेटी यानी एक औरत को एक नयी स्त्री के रूप में नहीं देख पाए। वे उन्हें उसी खांचे में क़ैद किए रहे जिसमें वह हमेशा से थी। मुनव्वर ने मां को एक औरत, एक मनुष्य से ज़्यादा एक देवी, एक दैवीय अवतार के रूप में पेश किया, जैसा कि रिवायत है। उनके क़रीब मां महानता की मूरत ही रही, हाड़-मांस की एक मनुष्य या औरत नहीं।
कहीं कहीं तो वो मां की तारीफ़ करते हुए इस क़दर आगे बढ़ गए कि एक दूसरी औरत यानी जीवनसाथी, एक पत्नी को भी शर्मसार करने लगे, उसे कमतर साबित करने लगे। शे'र देखिए-
हमारी अहलिया तो आ गयी मां छुट गई आख़िर
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं
मुहाजिरनामा का यह शे'र मुनव्वर साहब मुशायरों में बड़ी शान से पढ़ते थे और दाद बटोरते थे, लेकिन यह शे'र मुझे हमेशा नागवार गुज़रा। मां और बीवी की ऐसी तुलना किसी भी तरह ठीक नहीं। वे भूल गए कि एक बीवी भी किसी की मां है, बहन है, बेटी है, और उससे आगे बढ़कर एक औरत है।
मां-बहन-बेटी के लिए आंसू बहाते हुए बेहद नाटकीय अंदाज़ में शे'र पढ़ने वाले मुनव्वर साहब दूसरी औरतों के प्रति इतने संवेदनशील नहीं दिखाई देते। उनके लिए कोठा, तवायफ़ जैसे शब्द या क़िरदार एक ग़ाली की तरह ही रहे—
मामूली एक क़लम से कहां तक घसीट लाए
हम इस ग़ज़ल को कोठे से मां तक घसीट लाए
ऐरे-ग़ैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों
आप को औरत नहीं अख़बार होना चाहिए
तवायफ़ की तरह अपने ग़लत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है
ख़ुदा महफूज रखे मेरे बच्चों को सियासत से
ये वो औरत है जिसने उम्र भर पेशा कराया है
भतीजी यानी एक लड़की के जवान होने के प्रतीक भी वही पुराने और रूढ़ियों में बंधे हुए हैं।
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं
और इस शे'र को क्या कहा जाए। इसमें एक बेटे या भाई की तमन्ना किस अंदाज़ में की गई है--
ऐ ख़ुदा थोड़ी करम फ़रमाई होना चाहिए
इतनी बहनें हैं तो फिर इक भाई होना चाहिए
मुनव्वर स्त्री-विरोधी नहीं हैं लेकिन जाने-अनजाने उन्होंने पितृसत्तात्मक सोच या पुरुषवाद को ही आगे बढ़ाया। इस नज़र या नज़रिये से मुनव्वर साहब आज़ाद नहीं हो सके।
ख़ैर...मुनव्वर राना के शे'र आम-फ़हम थे और हर किसी की ज़ुबान पर रहे।
इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए
आप को चेहरे से भी बीमार होना चाहिए
आप दरिया हैं तो फिर इस वक़्त हम ख़तरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हम को पार होना चाहिए
मुमकिन है हमें गांव भी पहचान न पाए
बचपन में ही हम घर से कमाने निकल आए
सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
बर्बाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
मां सब से कह रही है कि बेटा मज़े में है
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मिरे हिस्से में मां आई
यह शे'र अच्छा है। लेकिन इसे लेकर एक मज़ाक भी चलता है कि यह तो दीवार का डायलॉग है कि “...मेरे पास मां है”। अब दीवार फ़िल्म में यह डायलॉग इस शे'र की प्रेरणा से आया या यह शे'र फ़िल्म से मुतासिर रहा, इसे बताना तो मुश्किल है। शायद जावेद अख़्तर साहब बता पाएं!
मुनव्वर साहब को मां के अलावा उनके हिंदी-उर्दू के प्रेम के लिए भी जाना और सराहा जाता है।
लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिन्दी मुस्कुराती है
सगी बहनों का जो रिश्ता है उर्दू और हिन्दी में
कहीं दुनिया की दो ज़िंदा ज़बानों में नहीं मिलता
इसी तरह हिंदू-मुस्लिम एकता और मोहब्बत के वे ता-उम्र पैरोकार रहे। और सियासत का फैलाया झगड़ा देखकर हैरान-परेशान—
मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है
यह देखकर पतंगें भी हैरान हो गयीं
अब तो छतें भी हिन्दु-मुसलमान हो गयीं
क्या शहरे-दिल में जश्न-सा रहता था रात-दिन
क्या बस्तियां थीं कैसी बयाबान हो गयीं
मुनव्वर राना कई मायनों में बेबाक शायर रहे। निजी जीवन में भी शायद इसी वजह से विवादों के घेरे में आए और सत्ता के निशाने पर भी रहे। वे मंच से भी हाकिम को ललकारने की क़ुव्वत रखते थे—
बादशाहों को सिखाया है क़लंदर होना
आप आसान समझते हैं मुनव्वर होना
एक आंसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है
तुम ने देखा नहीं आंखों का समंदर होना
हम कि शायर हैं सियासत नहीं आती हमको
हमसे मुंह देख के लहजा नहीं बदला जाता
बस इतनी इल्तिजा है तुम इसे गुजरात मत करना
तुम्हें इस मुल्क का मालिक मैं जीते-जी बनाता हूं
आख़िर में उन्हें याद करते हुए, श्रद्धांजलि देते हुए उनका यही शे'र ज़बां पर आता है कि
हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आये
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आये
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