JNUSU: लेफ़्ट की लड़ाई सिर्फ़ ABVP से नहीं थी बल्कि मोदी की पूरी ‘चुनावी व्यवस्था’ से थी

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) छात्र संघ के नतीजे आते ही एक बार पूरा कैंपस– लाल है, लाल है के नारों से गूंज उठा। लेकिन इस बार भगवा भी बहुत पीछे नहीं था। आख़िरी के कुछ दौर को छोड़ दें तो मतगणना के हर चरण में आरएसएस का छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP), लेफ़्ट यूनिटी (AISA-SFI-DSF) को कड़ी टक्कर देता दिख रहा था। ख़ासकर महासचिव और संयुक्त सचिव के पद पर।
पिछली बार के चुनाव में एबीवीपी ने संयुक्त सचिव पद पर जीत हासिल की ही थी। इस बार लग रहा था कि वह महासचिव का पद भी हासिल कर नया इतिहास बनाएगा। और छात्र संघ 2—2 में बंट जाएगा। और आरएसएस-भाजपा का जेएनयू पर काबिज़ होने का सपना फ़िलहाल आधा-अधूरा ही सही लेकिन एक हद तक लगभग पूरा हो जाएगा।
हालांकि ऐसा नहीं कि ABVP कभी जेएनयू छात्र संघ में निर्णायक भूमिका में नहीं रहा। पुराने छात्र 90 के दशक का भी हाल बताते हैं। समर अनार्य अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखते हैं कि “जेएनयू ने एबीवीपी का चरम भी देखा है जब 1996-2000 तक कई सीटें जीत जाती थी। 1996 में एबीवीपी सेंट्रल पैनल में 4 में से 3 सीटे जीत के आई थी और सन् 2000 में तो एक वोट से ही सही अध्यक्ष पद तक जीती थी।”
तो यह है एक सच। लेकिन इस समय का दूसरा सच, जिस पर बात करना ज़्यादा ज़रूरी है वह यह कि इस बार सत्ता के स्तर पर पूरी ताक़त के साथ आइडिया ऑफ़ जेएनयू यानी जेएनयू के विचार पर हमला किया जा रहा है, उसे बर्बाद करने की कोशिश की जा रही है।
ये आइडिया ऑफ़ जेएनयू है क्या?, दरअसल यह है उसकी प्रगतिशील परंपरा, उसकी चेतना। जो समाज के दबे-कुचले वर्गों, दलितों, शोषितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों को पढ़ने और आगे बढ़ने का मौका देती है। उन्हें उनके अधिकार का बोध कराती है और लड़ने की प्रेरणा देती है। जेएनयू के छात्र कैंपस के साथ-साथ देश-दुनिया के हर छोटे-बड़े मुद्दे को लेकर जागरूक हैं और अपनी राय रखते हैं और कहीं भी शोषण-दमन हो उसके ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठाते हैं।
और आज बात इसी विचार को बचाने की आ गई है। क्योंकि 2014 के बाद से आरएसएस और मोदी तंत्र जिस तरह आज़ादी की लड़ाई और आज़ाद भारत में जवाहर लाल नेहरू के योगदान को मिटा देने की कोशिश में है उसी तरह खुलकर जेएनयू और उसके विचार को ही नष्ट करने की मुहिम में लगा है। उसे देशद्रोहियों का अड्डा और टुकड़े टुकड़े गैंग साबित करने में लगा है। जेएनयू के ही छात्र उमर ख़ालिद और शरज़ील इमाम को जिस तरह दिल्ली हिंसा की साज़िश के मामले में जेलों में डाला गया यह सत्ता तंत्र की ही बदले की कार्रवाई का एक उदाहरण है। इन चुनावों में भी लेफ़्ट उम्मीदवारों ने अपने इन दोनों छात्राओं को याद किया और उनकी गिरफ़्तारी और अब तक ज़मानत न मिलने पर सवाल उठाया।
जेएनयू को जानने वाले बताते हैं कि आज किस तरह जेएनयू को बाहर और भीतर दोनों स्तर पर बर्बाद करने की कोशिश की जा रही है। भगवा रंग में रंग देने की कोशिश की जा रही है। इसे दो-तीन स्तर पर किया जा रहा है– कुलपति से लेकर पूरे एडमिन स्टाफ में मनमाफ़िक नियुक्तियां यहां तक कि प्रोफ़ेसर्स की नियुक्ति में भी विशेष विचारधारा का ध्यान रखा जा रहा है, उन्हें प्रमोट किया जा रहा है। साथ ही जेएनयू में प्रवेश की ही पूरी प्रक्रिया बदल कर।
अब तक जेएनयू अपनी एंट्रेस परीक्षा कराता था। इस परीक्षा प्रणाली की प्रकृति या ख़ासियत ऐसी थी कि वह सामाजिक रूप से विविध छात्रों को बेहतर अवसर देती थी। उसमें विश्लेषणात्मक और लेखन आधारित प्रश्न होने से, वंचित और ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्रों को अपने विचार और समझ के आधार पर प्रतिस्पर्धा करने का अवसर मिलता था। लेकिन अब प्रवेश CUET के माध्यम से हो रहा है जिसमें केवल नंबर के आधार पर रैंक तय की जाती है। और नंबर का आधार भी क्या है सिर्फ़ ऑब्जेक्टिव सवाल।
अपनी पुरानी प्रवेश परीक्षा को बहाल करने के लिए छात्रों और छात्र संघ ने काफी आंदोलन भी किए लेकिन एडमिन के कान पर जूं नहीं रेंगी।
कुल मिलाकर जेएनयू की जो भी विशिष्ठता थी उसे नष्ट किया जा रहा है। जब-तब इसकी विशिष्ठ चुनावी प्रक्रिया को बदलने या रोकने की कोशिश की गई। जो लिंगदोह कमेटी के लिए भी एक मिसाल थी। कोशिश की गई कि जेएनयू का चुनाव भी पैसे और पॉवर का खेल बना दिया जाए, लेकिन ऐसा हो न सका। इस सबकुछ के बाद भी जेएनयू अपने विचार पर टिका है, यह आज के दौर में बेहद महत्वपूर्ण है।
हालांकि इसमें सेंध लग चुकी है यानी मोदी सरकार अपनी परियोजना में काफी हद तक सफल भी हुई है। इसे कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि एबीवीपी सेंट्रल पैनल में सभी चारों सीटों पर चुनाव हार गई लेकिन वह अब भी बहुत घाटे में नहीं हैं। क्योंकि एबीवीपी को हार के बावजूद कम वोट नहीं मिले हैं। उसके वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी ही हुई है और कई काउंसलर पद पर उसके उम्मीदवार जीते भी हैं। हालांकि उसने कई निर्दलीयों को भी अपने खाते में गिनाना शुरू कर दिया है।
वाम छात्र संगठनों के लिए यह राहत की बात है कि उन्होंने इन मुश्किल और विपरीत हालात में मिलकर न केवल आरएसएस-बीजेपी की परियोजना को फेल किया बल्कि पिछली बार का संयुक्त सचिव पद भी वापस पा लिया।
पिछली बार लगातार देखने को मिला था कि एबीवीपी का संयुक्त सचिव छात्र संघ के अन्य पदाधिकारियों से हर मामले में अलग लाइन ले रहा था, चाहे वह आम छात्रों की हित की क्यों न बात हो, लेकिन संयुक्त सचिव कभी पैनल के साथ नहीं आया और कुलपति और एडमिन ने हर बार पैनल के प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि पूरा पैनल की बात सुनी जाएगी। यानी जब तक एबीवीपी का संयुक्त सचिव नहीं होगा, तब तक छात्र संघ की कोई बात नहीं सुनी जाएगी और यह गतिरोध पूरे कार्यकाल में रहा। इसलिए इस बार पूरा पैनल एक विचार और नीति का होना ज़रूरी था ताकि छात्रों की समस्याओं और मांगों पर एक राय बन सके।

यही वजह है कि इस बार के चुनाव परिणाम लेफ़्ट यूनिटी को एक अलग तरह की ख़ुशी दे रहे हैं।
एबीवीपी का कहना है कि उसने अकेले दम पर इतनी ज़बर्दस्त टक्कर दी, जबकि लेफ़्ट यूनिटी में कई संगठनों का गठबंधन था– आइसा (ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन), एसएफआई (स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया) और डीएसएफ (डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फेडरेशन)। लेकिन यह पूरा सच नहीं है– पिछली बार आइसा के साथ गठबंधन में डीएसएफ था और एसएफआई के साथ गठबंधन में एआईएसएफ, पीएसए (प्रोग्रेसिव स्टूडेंड्स एसोसिएशन) और बाप्सा (बिरसा अम्बेडकर फुले छात्र संघ) थे। इस बार अगर एसएफआई-आइसा-डीएसएफ साथ आए तो पीएसए, बाप्सा अलग चुनाव लड़े। पीएसए की प्रत्याशी शिंदे विजयलक्ष्मी ने तो अध्यक्ष पद पड़े कुल 5802 वोट में से 1276 वोट हासिल किए। जबकि विजयी रहीं आइसा की अदिति मिश्रा को 1937 और एबीवीपी के विकास पटेल को 1488 वोट मिले। अगर देखें तो विजयलक्ष्मी ने अकेले एबीवीपी उम्मीदवार को टक्कर देते हुए लगभग उसके बराबर वोट ही पाएं हैं।
इस बार इसी धारा के छात्र संगठन एआईएसएफ (AISF) ने वाम गठबंधन से अपने को अलग रखा। इसके अलावा दिशा नाम का संगठन भी चुनाव लड़ा। यानी अगर कहा जाए तो एबीवीपी के अलावा छात्र संघ में ज़्यादातर संगठन जो एक-दूसरे को टक्कर दे रहे थे भले ही उनकी राजनीति और कार्यशैली में थोड़ा फ़र्क़ और कुछ मुद्दों पर असहमति हो लेकिन वे भी मोटे तौर पर प्रगतिशील क्रांतिकारी धारा और बहुजन एकता और सिद्धांत वाले ही संगठन हैं। इसके अलावा कांग्रेस का छात्र संगठन एनएसयूआई भी मैदान में था। आज राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस विपक्षी गठबंधन इंडिया के केंद्रक की तरह है जिसके नेता राहुल गांधी की वजह से ओवरऑल कांग्रेस की छवि भी युवाओं में काफ़ी सुधरी है।
लेफ़्ट छात्र संगठनों का कहना है कि इन चुनावों में एबीवीपी अकेला नहीं था बल्कि उसके साथ आरएसएस और बीजेपी की पूरी ताक़त लगी थी। साथ ही एडमिन उनके हक़ में लगातार काम कर रहा था। इसलिए एबीवीपी की हार अकेले एबीवीपी नहीं, बल्कि सरकार और एडमिन के इस प्रत्यक्ष या परोक्ष पूरे गठबंधन की है।

लेफ़्ट यूनिटी की जीत में इस बार एक और ख़ास बात रही, कि सेंट्रल पैनल के चार पदों में से तीन पर लड़कियां जीती हैं। अध्यक्ष बनी हैं– अदिति मिश्रा (AISA), उपाध्यक्ष हैं- के गोपिका (SFI) और संयुक्त सचिव हैं– दानिश अली (AISA)। महासचिव बने हैं सुनील यादव (DSF)
आपको इस चुनाव का लास्ट काउंट यानी अंतिम परिणाम भी बता देते हैं। यानी अंतिम तौर पर किसे कितने वोट मिले–




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