ईरान-अमेरिका परमाणु समझौता: सात साल पहले बाहर निकले ट्रंप अब फिर वापस!

व्हाइट हाउस में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की मुलाक़ात के बाद नेतन्याहू ने कहा, “हम दोनों इस लक्ष्य में एकमत हैं कि ईरान को परमाणु हथियार नहीं मिलने चाहिए।” उन्होंने आगे जोड़ा, “अगर इसे राजनयिक तरीके से, पूरी तरह से, उसी तरह से किया जा सकता है जैसे लीबिया के मामले में किया गया था, तो यह एक अच्छी बात होगी।”
लीबियाई मॉडल का मतलब है वह रास्ता जिसमें राष्ट्रपति मुअम्मर गद्दाफ़ी ने हथियार डाल दिए, परमाणु कार्यक्रम छोड़ दिया, और उसके तुरंत बाद अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस द्वारा सैन्य रूप से समर्थित विद्रोहियों ने उन्हें सत्ता से बेदखल कर मार डाला। वही गद्दाफ़ी, जो अफ्रीकी संघ की आत्मा थे और उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ अफ्रीका को एक ताक़त बनाना चाहते थे। गद्दाफ़ी की हत्या के दस साल बाद भी लीबिया एक ऐसा राष्ट्र है जिसे अमेरिका और उसके सहयोगियों ने तबाह कर दिया है—एक विभाजित देश, जहां अलग-अलग गुटों में टकराव जारी है।
नेतन्याहू का ईरान के लिए भी वही लक्ष्य है: ईरान में ‘लीबिया दोहराना’। फर्क बस इतना है कि ईरान कहीं बड़ा देश है और वह सिर्फ़ एक समृद्ध सभ्यता का उत्तराधिकारी नहीं है, बल्कि उसने हाल की घटनाओं से भी सबक सीखा है।
ओमान की मध्यस्थता में हुई दो दौर की परोक्ष बातचीतों के बाद अमेरिका और ईरान के बीच एक एजेंडा तय हुआ है, जिसके तहत अब 26 अप्रैल से ओमान में प्रत्यक्ष बातचीत शुरू हो सकती है। पिछली दोनों बातचीतों में दोनों पक्ष अलग-अलग कमरों में थे, और ओमान मध्यस्थ की भूमिका में था। इसी प्रक्रिया में बातचीत का एजेंडा तय हुआ।
तो फिर अमेरिका, ख़ासतौर पर ट्रंप, ने 2018 में इसी ईरान समझौते से क्यों बाहर निकलने का फ़ैसला किया था? और अब क्यों वह उसी समझौते में लौटना चाहता है? क्या इसलिए कि सात साल के प्रतिबंधों के बावजूद वह ईरान से अपनी शर्तें नहीं मनवा पाया? या इसलिए कि अब सैन्य कार्रवाई का विकल्प लगभग ख़त्म हो चुका है?
इससे पहले कि हम ट्रंप की विश्वदृष्टि और ईरान को लेकर उनकी सोच पर बात करें, पहले ज़रा JCPOA यानी संयुक्त व्यापक कार्य योजना (Joint Comprehensive Plan of Action) पर एक नज़र डालते हैं। यह समझौता 2015 में सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य देशों (P5), जर्मनी और यूरोपीय संघ (P5+1) तथा ईरान के बीच हुआ था। उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा थे। लेकिन 2018 में डोनाल्ड ट्रंप ने यह कहते हुए समझौते से अमेरिका को बाहर निकाल लिया कि यह ईरान के प्रति बहुत नरम था।
चूंकि केवल अमेरिका ही JCPOA से बाहर हुआ था, यूरोपीय देशों के पास विकल्प था कि वे इसे जीवित रखें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि अमेरिका ने डॉलर और वैश्विक वित्तीय प्रवाह पर अपनी पकड़ तथा वित्तीय प्रतिबंधों की धमकी देकर ज़्यादातर देशों और कंपनियों को ईरान से व्यापार बंद करने पर मजबूर कर दिया। डॉलर पर नियंत्रण अमेरिका को एकतरफा प्रतिबंध थोपने और उन संस्थाओं को दंडित करने की ताक़त देता है जो न केवल अंतरराष्ट्रीय क़ानून, बल्कि अमेरिकी क़ानून और नीतियों का भी उल्लंघन करती हैं।
अमेरिकी अधिकारियों — स्टीफन मिरान और पीटर नवारो — के विपरीत, सच्चाई यह है कि डॉलर का वैश्विक मुद्रा के रूप में दर्जा अमेरिका पर बोझ नहीं, बल्कि उसकी सबसे बड़ी ताक़त है। ट्रंप ने धमकी दी है कि जो भी देश वैकल्पिक वैश्विक मुद्रा बनाएगा, उस पर 100% टैरिफ लगाया जाएगा।
2015 के JCPOA समझौते के तहत ईरान ने अपने गैस सेंट्रीफ्यूज की संख्या 19,000 से घटाकर लगभग 5,000 कर दी थी और 3.7% शुद्धता वाले निम्न-शुद्ध यूरेनियम का भंडार 10,000 किलो से घटाकर सिर्फ 300 किलो कर दिया था। लेकिन जब अमेरिका बाहर निकला, तो ईरान ने और अधिक उन्नत सेंट्रीफ्यूज बड़ी संख्या में स्थापित कर लिए और वर्तमान में उसके पास नतांज़ और फोर्डो में लगभग 13,000 सेंट्रीफ्यूज हैं।
JCPOA से अमेरिकी बहिर्गमन और यूरोप की असफलता के बाद ईरान ने घोषणा की कि वह अब JCPOA के नियमों का पालन नहीं करेगा और 5% से अधिक यूरेनियम शुद्ध करेगा। इसके बाद ईरान ने पहले 20% और फिर 60% शुद्धता तक यूरेनियम समृद्ध किया। आख़िरी क़दम — 60% से 90% तक — बेहद छोटा है और कुछ हफ्तों का काम है। पश्चिमी थिंक-टैंकों के अनुसार, ईरान परमाणु हथियार-समर्थ राष्ट्र बनने से सिर्फ कुछ हफ़्ते दूर है।
ट्रंप के लगाए प्रतिबंधों को बाइडन प्रशासन द्वारा और सख़्त करने के बावजूद ईरान ने न तो झुकने का संकेत दिया और न ही क्षेत्र में अपनी प्रभावशीलता खोई। सीरिया में बशर अल-असद की हार ने भले ही इज़राइल और तुर्की को क्षेत्र में ताक़तवर बनाया हो, लेकिन ईरान अब भी एक निर्णायक ध्रुव बना हुआ है। लेबनान में हिज़बुल्लाह के शीर्ष नेताओं की हत्या के बावजूद वह अब भी प्रतिरोध का प्रतीक बना हुआ है।
यमन के हूथी विद्रोही अब भी एक ताक़त हैं, जिन्हें अमेरिका और इज़राइल नुकसान तो पहुँचा सकते हैं, लेकिन हरा नहीं सकते। इसलिए अमेरिका और इज़राइल की रणनीति या तो ईरान को झुका देना है या उसे लीबिया, इराक़ और सोमालिया की तरह पूरी तरह बर्बाद कर देना। उनका मानना है कि अगर ईरान को नष्ट कर दिया गया, तो हूथी और हिज़बुल्लाह जैसे संगठन या तो हार मान लेंगे या आसानी से नष्ट किए जा सकेंगे।
नेतन्याहू का “लीबियाई विकल्प” केवल परमाणु हथियार छोड़ने की बात नहीं है, बल्कि ईरान को लीबिया की तरह बर्बाद करने का संकेत है। यह 21वीं सदी का नया साम्राज्यवाद है—जिसमें तबाही मचाने की ताक़त है, लेकिन उसकी परिणामी परिस्थितियों को संभालने की कुव्वत नहीं।
साम्राज्यवाद का पहला दौर उपनिवेश बनाने का था, लेकिन आज वह केवल तबाही मचा सकता है, उसे नियंत्रित नहीं कर सकता। कह सकते हैं कि दुनिया उस दौर से काफी आगे निकल चुकी है, जब उपनिवेशवादी ताक़तें कहती थीं — “हमारे पास मैक्सिम गन है और उनके पास कुछ नहीं।”
ईरान, सीरिया या लेबनान नहीं है। उसका समाज अधिक संगठित है और वह ऐतिहासिक राष्ट्र की पहचान रखता है, unlike those artificial देशों की तरह जिन्हें प्रथम विश्व युद्ध के बाद ऑटोमन साम्राज्य से निकाल कर यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने बनाया था।
ईरान पश्चिम एशिया के उन सामंती शेखों के देशों से कहीं अधिक बड़ा और मज़बूत है। वह इराक़ से चार गुना बड़ा और जनसंख्या में तीन गुना है। उसके पास ऐसी मिसाइल क्षमता है जो क्षेत्र में मौजूद अमेरिकी सैन्य ठिकानों और तेल संरचनाओं को तबाह कर सकती है — जैसे कि क़तर का उदेइद एयरबेस (CENTCOM हेडक्वार्टर्स) और बहरीन का 5वां नौसैनिक बेड़ा।
अमेरिका एक साल की बमबारी और मिसाइल हमलों के बावजूद यमन के हूथियों को परास्त नहीं कर पाया है। इज़राइल, या कहें नेतन्याहू का हित सीमित है — अमेरिका का इस्तेमाल कर ईरान की परमाणु सुविधाओं और सैन्य ताक़त को नष्ट कराना। इससे इज़राइल सुनिश्चित कर लेगा कि क्षेत्र में कोई ताक़त उसके बराबरी की स्थिति में न आए।
लेकिन अमेरिका को ऐसी किसी जंग के दूरगामी नतीजों का भी सामना करना पड़ेगा — अपने क्षेत्रीय सहयोगियों की बर्बादी और वैश्विक अर्थव्यवस्था के संभावित पतन का भी। अमेरिका ने इन सहयोगियों में काफी निवेश किया है और उसे अपने तेल शेखों की ज़रूरत है ताकि वे डॉलर का समर्थन करें और महंगे अमेरिकी हथियार खरीदते रहें।
ईरान साफ कर चुका है कि कुछ मुद्दे उसके लिए गैर-परक्राम्य हैं। जैसे — वह परमाणु ऊर्जा के लिए 3.57-5% यूरेनियम शुद्धता और अनुसंधान रिएक्टर के लिए 20% तक शुद्धता का अधिकार नहीं छोड़ेगा। नए ‘स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर्स’ (SMRs) के लिए भी 20% शुद्धता चाहिए — यही वजह है कि ईरान पिछली बार की तरह 5% सीमा को स्वीकार नहीं करेगा।
परमाणु अप्रसार संधि (NPT) के तहत शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा का उपयोग हर देश का अधिकार है। इसलिए यह बेहद असंभव है कि ईरान यह अधिकार छोड़ेगा। वह अपनी तकनीकी प्रगति या मिसाइल प्रणाली को भी इस समझौते से नहीं जोड़ेगा।
अब देखना यह है कि दोनों पक्षों के बीच कितना फासला है और क्या कोई साझा ज़मीन निकल सकती है।
बड़ा सवाल यह भी है: अगर ट्रंप उसी पुराने समझौते को दोहराने को तैयार हैं, तो फिर वे पहले उससे बाहर क्यों निकले थे? इस सवाल का जवाब देना ट्रंप और अमेरिका दोनों के लिए मुश्किल होगा।
ट्रंप को या तो झुकना पड़ेगा या फिर एक ऐसी जंग शुरू करनी होगी जो पूरे क्षेत्र को तबाह कर सकती है — और शायद पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी। यह इज़राइल के लिए तो ठीक हो सकता है जो खुद को यूरोप मानता है, लेकिन ट्रंप के लिए यह एक ‘जंग ज़्यादा’ हो सकती है।
हमें सामूहिक रूप से साँस रोककर इंतज़ार करना होगा कि क्या ट्रंप प्रशासन में कभी समझदारी की जीत होगी।
या यह उम्मीद करना बहुत ज़्यादा है?
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मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित यह आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–
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