भारत बहुसंख्यकवाद राजनीति की चपेट में

वैश्विक स्तर पर इस समय अधिकतर देश बहुसंख्यकवाद की राजनीति से ग्रस्त हैं। बहुसंख्यकवाद की राजनीति को समझने के लिए सबसे पहले 'बहुसंख्यकवाद' क्या है इसको समझना आवश्यक है। इसके तहत किसी भी देश या समाज का एक ऐसा बड़ा यानी बहुसंख्यक तबक़ा जो धर्मगत, जातिगत, वर्ग, वर्ण, रंग या फिर विचारधारा के स्तर पर सामान हो और यदि देश की सत्ता उसके ही हाथ में हो और इसके बावजूद देश के दूसरे तबक़े जो अल्पसंख्या में हैं उनको लेकर इस तबक़े की मानसिकता ऐसी हो कि ये लोग हमारे संप्रदाय व राष्ट्र के विरोधी हैं तो वैश्विक फ़लक पर इसी भाव को बहुसंख्यकवाद की राजनीति कहते हैं। सियासत में इनमें से किसी भी समानता को साथ लेकर चलते हुए राजनीति करने को बहुसंख्यकवाद की राजनीति कहना अनुचित नही होगा ।
अगर इस राजनीति के प्रादुर्भाव (शुरुआत) पर नज़र डालें तो हम देखते हैं कि यह राजनीति नेहरू के बाद शुरू हुई है जब लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री रहते हुए कई धार्मिक कार्यक्रमों में अपनी मौजूदगी दिखाई लेकिन उस समय इस पर ज़्यादा चर्चा नहीं हुई लेकिन नेहरू ने जब देश को सेक्युलर देश के रूप में संविधान के अनुसार पाया तो उन्होंने किसी भी धार्मिक प्रकार के अनुष्ठान में जाने से मना कर दिया क्योंकि वो इस देश को धर्मवाद से बचाना चाहते थे और धर्म एवं धार्मिक अनुष्ठान को निजी और व्यक्तिगत रखना चाहते थे जिसकी कानून भी इजाज़त देता है।
इसी कड़ी में कुछ वर्षों बाद तथाकथित सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन ने देश मे अंदरूनी तौर पर यह कार्य किया और जनता को इस रूख़ पर मोड़ने का प्रयास किया लेकिन कहीं पर तो वो कामयाब हुए तो कहीं पर उनको कामयाबी नहीं मिली।
देश मे इसकी अप्रत्यक्ष शुरुआत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुई जब राजीव गांधी ने कहा कि अगर कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती में हलचल तो होती ही है। इसके द्वारा उन्होंने इंदिरा गांधी की हत्या के परिणामस्वरूप जो दिल्ली या उसके आसपास सिख विरोधी दंगे हुए एवं उससे उत्पन्न हुए आपसी तनाव को इशारों में उचित ठहरा दिया जिससे बहुसंख्यक लोगों में यह सन्देश गया कि जो उन्होंने किया है वो सही है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वो बहुसंख्यक लोगो को एकसाथ करके राजनीति करना चाहते थे ताकि उनका वोट बैंक बना रहे।
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए 1989 के चुनाव की शुरुआत भी राजीव गांधी ने अयोध्या से की जहां से देश की जनता में यह सन्देश गया कि राजीव गांधी बहुसंख्यकवाद की राजनीति को आगे बढ़ा रहे है
लेकिन इससे पहले 1960 के दशक के जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी का निर्माण अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जी ने 80 के दशक में ही कर लिया था और उन्होंने अपनी पितृसंस्था आरएसएस के अनुसार निखालिस बहुसंख्यकवाद की राजनीति को फ़रोग़ दिया। इसी कड़ी में आडवाणी जी ने 1990 में पूरे देश मे रथयात्रा का बिगुल फूंक दिया जिसमें उन्हें कामयाबी भी मिली क्योंकि देश अंदरूनी तौर पर कांग्रेस के सौजन्य से और कुछ संगठनों के द्वारा उस तरफ मुड़ चुका था। साथ ही आडवाणी जी ने इसको वक़्त की नज़ाकत समझते हुए मुद्दा भुनाना प्रारम्भ भी कर दिया जिसके बाद से भारतीय राजनीति कुछ उठा पटक चलती रही।
कांग्रेस टूटती रही, बनती रही, लेकिन इसी बीच दूसरे मोर्चे बनते रहे जो संविधान और लोकतंत्र को मज़बूत करना चाहते थे। लेकिन स्थितियों से बदलती तस्वीर को कुछ अलग ही मंजूर था। भाजपा का एक सॉफ्ट चेहरा दूसरे कट्टर चेहरे के माध्यम से राजनीति को मैनेज करने का प्रयास करता रहा जिसके समर्थन से सरकार भी बनी लेकिन कुछ समय बाद कांग्रेस ने अच्छी वापसी की और दूसरे कार्यकाल में उसको कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भृष्टाचार, बेरोज़गारी एवं घोटाले जैसे मुद्दों पर घेर लिया लेकिन तफ्तीश के बाद बहुत जगह यह झूठ पाया गया और जब तक कांग्रेस का खेत भाजपा नाम की चिड़िया चुग चुकी थी। इधर बहुसंख्यकवाद की राजनीति के मुद्दे को लेकर भाजपा दूसरे मुद्दे को साथ लेकर चल रही थी जो मुद्दे इन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उठाये थे उन्होंने उत्प्रेरक का कार्य किया और भाजपा सरकार भारी बहुमत से सत्ता में आई इस चुनाव को जीतने के लिए उन्होंने हिंदुत्व के चेहरे को अपना प्रधानमंत्री का चेहरा भी बनाया इससे उनकी जीत आसान हो गयी और यही वो मुद्दें हैं जिन पर वर्तमान सरकार काम कर रही है।
भाजपा के इस क़दम से बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा मिल रहा है आज अधिकांश राज्यों में भाजपा की सरकार है और अन्य राज्यों में भी भाजपा के लोग इसी मुद्दे पर काम कर रहे हैं।
इस बहुसंख्यक राजनीति जिसकी शुरुआत कांग्रेस ने की थी फ़िलहाल उसका मज़ा वर्तमान सरकार उठा रही है। इस पार्टी के प्रवक्ताओं की मीडिया डिबेट (जिसका मैं समर्थन नहीं करता) और उनकी सोशल मीडिया देखें तो वो केवल बहुसंख्यक को ही तरजीह देते हैं जिसका लाभ भी उनको वोट बैंक निर्मित करने में होता है और चुनाव के वक़्त वोट की सौगात भी हाथ लगती है।
बहुसंख्यक राजनीति वैश्विक स्तर पर हो रही है और उनको उसका लाभ भी हो रहा है लेकिन भारत में बहुसंख्यकवाद की राजनीति तो हुई साथ ही अल्पसंख्यकों को दरकिनार भी किया गया लेकिन उनके मूल अधिकार छीनने की जुगत अभी तक नहीं हुई थी क्योंकि यह देश वसुधैव कुटुम्बकम का अनुयायी रहा है लेकिन कुछ वर्षों से इस बहुसंख्यकवाद की राजनीति ने देश में घृणा, नफ़रत के बीज ऐसे बोए हैं कि मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा भी एकतरफ़ा ही नज़र आता है साथ ही गम्भीर मामलों की भी सही पड़ताल को नकार कर बहुसंख्यकवाद की राजनीति को परोक्ष और अपरोक्ष रूप से मीडिया डिबेट के माध्यम से आगे बढ़ाता है।
इस सबसे निश्चित ही देश की एकता, अखण्डता और संप्रभुता को आज बहुत बड़ा खतरा है। भारत मे कई प्रकार के अल्पसंख्यक हैं जैसे धार्मिक, जातिगत, वर्णात्मक, वैचारिक एवं रंग के अनुसार, फिर भी भारत का संविधान उनको समानता का अधिकार देता है उनके मानवीय मूल्यों की रक्षा करता है जो कि भारतीय लोकतंत्र की सुंदरता का परिचायक है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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