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बिजली संशोधन कानून 2021: बिजली को तारों से अलग करने की कसरत!

दुर्भाग्य से, बिजली के मामले में बाजार की विफलता के सबूत अपने सामने होने के बावजूद, वर्तमान सरकार ऐसी नीतियों को ही आगे बढ़ाने में लगी हुई है, जो इस क्षेत्र को और भी ख़तरे में डालने जा रही हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर

देश में पैदा हुए कोयला संकट का नतीजा यह हुआ कि बिजली उत्पादन में उल्लेखनीय कमी हो गयी। इसके चलते खासतौर पर उत्तरी भारत में कई-कई घंटे की लोड शेडिंग की नौबत आ गयी। बहरहाल, अडानी पॉवर जैसे कुछ निजी बिजली उत्पादकों ने इसी चक्कर में आंधी के झड़ गए आमों की तरह, भारी अनार्जित मुनाफे बटोर लिए। ब्लैकआउट का सामना कर रहे आंध्र, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा गुजरात जैसे कुछ राज्यों की बिजली वितरण उपयोगिताओं को, इंडियन इनर्जी एक्सचेंज (आइईएक्स) नाम के बिजली की खरीद-फरोख्त के मंच के जरिए, अनाप-शनाप कीमतों पर बिजली खरीदनी पड़ी। 

बिजली की किल्लत के इन हफ्तों में इस मंच पर बिजली की स्पॉट कीमत बढक़र 20 रुपए प्रति यूनिट तक पहुंच गयी, जबकि इस एक्सचेंज पर बिजली की औसत दर 2 रुपए 75 पैसा प्रति यूनिट के करीब रहती है।

पिछले दिनों हमने इसकी चर्चा की थी कि किस तरह कोयला तथा विद्युत मंत्रालयों की घोर विफलता के चलते, बिजली घरों के लिए कोयले की उपलब्धता में कृत्रिम कमी पैदा हो गयी थी। 3 सितंबर के एक प्रैस रिलीज में विद्युत व कोयला मंत्रालयों के सचिवों, रेलवे व कोयला कंपनियों, विद्युत उपयोगिताओं व केंद्रीय बिजली प्राधिकार (सीईए) के उच्चाधिकारियों की बैठक की खबर दी गयी थी। इस खबर से पता चलता है कि किस तरह बिजली मंत्रालय को, सिर पर मंडराते खतरे की कोई सुन-गुन ही नहीं थी। 

इसे भी पढ़ें : बिजली की मौजूदा तंगी सरकारी नियोजन में आपराधिक उपेक्षा का नतीजा है 

इस प्रेस रिलीज में, ‘ताप बिजलीघरों में कोयले के भंडारों पर नजदीकी नजर रखने के लिए...कोर मैनेजमेंट टीम (सीएमटी) के गठन की बात की गयी थी। बिजली मंत्री, आरके सिंह ने बैठक को सम्बोधित करते हुए कहा था, ‘कोल इंडिया लि. (सीआइएल) की कोयला सब्सीडियरियों को सलाह दी गयी है कि सितंबर 2021 के लिए उन्हें जो लक्ष्य दिए गए हैं उन पर कायम रहें और कोयला उत्पादन बढ़ाने के लिए सभी प्रयास करें, ताकि धीरे-धीरे ताप बिजलीघरों के कोयला भंडार बढ़ा सकें। अक्टूबर के मध्य से भंडार जमा करने शुरू हो जाएं ताकि दिसंबर के कुहासे के मौसम में किन्हीं कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़े। इसमें न तो इसका कोई जिक्र है कि बिजलीघरों के पास कोयले के कितने कम भंडार हैं और न इसमें इसका कोई एहसास है कि अर्थव्यवस्था के चक्के चलने और त्यौहारी सीजन के योग से, कैसे तत्काल बिजली संकट पैदा हो सकता है।

बिजली नियमनकर्ता या रेगुलेटर की निष्क्रियता और निजी बिजली उत्पादकों की मुनाफाखोरी की भत्सर्ना करते हुए, ऑल इंडिया पॉवर इंजीनियर्स फेडरेशन (एआइपीईएफ) के अध्यक्ष, शैलेंद्र दुबे ने नियामकों के फोरम की बैठक बुलाए जाने की मांग की है। उनका कहना है कि यह बैठक फौरन बुलायी जानी चाहिए ताकि बिजली एक्सचेंज में, संकट के दौरान मुख्यत: निजी ऑपरेटरों द्वारा बिजली की कालाबाजारी किए जाने पर, रोक लगायी जा सके।

इससे पहले, ऑल इंडिया पॅावर इंजीनियर्स फेडरेशन ने केंद्रीय बिजली मंत्री को पत्र लिखा था कि राज्य बिजली बोर्डों के कामों के विभाजन (अनबंडलिंग) के बाद, बिजली उत्पादन तथा ट्रांसमिशन के धंधे में लगी कंपनियां तगड़े मुनाफे बटोर रही हैं। इसके विपरीत, बिजली वितरण कंपनियों को भारी घाटे उठाने पड़ रहे हैं। दुर्भाग्य से इन बिजली वितरण कंपनियों का ही सीधे ग्राहकों से वास्ता पड़ता है और उनके लिए इसकी कोई गुंजाइश ही नहीं होती है कि बिजली की सारी बढ़ती हुई लागत- कोयले व रेलवे से उसकी ढुलाई की बढ़ती लागतों तथा बिजली उत्पादन व ट्रांसमिशन की पूरी लागतों का बोझ उपभोक्ताओं पर डाल दें। इसका नतीजा यह है कि आज बिजली वितरण कंपनियां अपने उपभोक्ताओं से उन्हें दी जा रही बिजली की करीब 75 से 80 फीसद तक लागत ही वसूल कर पा रही हैं और उनकी लागत व वसूली के बीच का यह अंतर, बिजली वितरण कंपनियों के बढ़ते घाटों के रूप में जमा होता जा रहा है।

केंद्र सरकारबिजली वितरण कंपनियों तथा राज्य सरकारों को उनके बढ़ते घाटों को लेकर भाषण तो खूब देती हैं, लेकिन अपनी मिल्कियत वाली प्रमुख बिजली उत्पादक एनटीपीसी, रेलवे तथा कोल इंडिया द्वारा उनसे की जा रही अतिरिक्त कीमत वसूली में कोई रियायत नहीं होने देती है। कहने की जरूरत नहीं है कि ये सभी सरकारी उद्योग बिजली वितरण कंपनियों की कीमत पर अच्छे-खासे मुनाफे बटोर रहे हैं। जाहिर है कि एनटीपीसी और कोल इंडिया के मुनाफों में से बड़ा हिस्सा लाभांश के रूप में केंद्र सरकार के खजाने में पहुंच जाता है, जबकि कोयले की ढुलाई के ऊंचे दाम, रेलवे के यात्री ट्रैफिक पर लगने वाला टिकट अपेक्षाकृत सस्ता रखने के काम आते हैं। ये सब एक प्रकार से राज्य बिजली वितरण कंपनियों से केंद्र सरकार द्वारा की जाने वाली कर वसूलियां ही हैं।

बिजली इंजीनियरों तथा कर्मचारियों ने बिजली क्षेत्र में सुधारों के नाम पर, बिजली वितरण कंपनियों का ही विभाजन (अनबंडलिंग) करने के, केंद्र सरकार के हालिया प्रस्तावों का भी विरोध किया है। ये तथाकथित सुधार, मसौदा बिजली सुधार विधेयक-2021 में पेश किए गए हैं, जो विभिन्न अवतारों में पिछले कुछ अर्से से, विचाराधीन बना रहा है। इन तथाकथित सुधारों में मुख्य जोर इस पर है कि निजी कारोबारी खिलाडिय़ों को ऐसी निजी वितरण कंपनियां खड़ी करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए, जिनका अपना कोई बिजली संबंधी ढांचा ही नहीं होगा और जो सिर्फ बिजली की खरीद-फरोख्त का काम करेंगी। 

 दूसरी ओर मौजूदा सरकारी बिजली वितरण कंपनियों को, जिनके पास वितरण का सारा ढांचा है-वितरण लाइनों या हमारे घरों तक बिजली पहुंचाने वाले तारों से लेकर, ट्रांसफॉर्मरों तथा अन्य संबद्घ उपकरणों तक, इसके लिए बाध्य किया जाएगा कि इन बिजली व्यापारियों को इसका मौका दें कि उनके बिजली वितरण के बुनियादी ढांचे का उपयोग कर, उनके ग्राहकों को अपनी बिजली बेचें। प्रस्तावित कानून में इसका भी प्रस्ताव है कि वितरण कंपनियों के लिए लाइसेंस की जरूरत खत्म कर दी जाए, जिसका अर्थ यह है कि वितरण कंपनी चलाने के लिए किसी भी लाइसेंस की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। इसके बाद, इस तरह के बिजली व्यापारी और अपने विशाल बुनियाद ढांचे के साथ बिजली वितरण उपयोगिता की एक जैसी हैसियत होगी और उनके साथ एक जैसा सलूक किया जाएगा। बिजली क्षेत्र के लिए यह ऐसा कदम है, जो न पहले किसी ने देखा है और न जिसके बारे में किसी ने सुना ही है। दुनिया भर में किसी भी महत्वपूर्ण बिजली ग्रिड ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है।

बिजली व्यापारियों को अपनी मर्जी के ग्राहकों को बिजली की आपूर्ति करने की इजाजत देना, वास्तव में उन्हें इसकी इजाजत देना है कि वर्तमान बिजली वितरण उपयोगिताओं या डिस्कॉमों के उपभोक्ताओं में से छांट-छांटकर, ज्यादा कमाई दे सकने वाले हिस्सों को चुन लें। लेकिन, जब इन बिजली व्यापारियों द्वारा ज्यादा कमाई वाले उपभोक्ताओं को छांटकर अपने लिए चुन लिया जाएगा, उसके बाद बाकी के उपभोक्ताओं के लिए बिजली की आपूर्ति में वर्तमान डिस्कॉमों के घाटे और भी ज्यादा हो जाएंगे। इससे डिस्कॉमों के लिए अपने भौतिक बुनियादी ढांचे का रख-रखाव करना और भी मुश्किल हो जाएगा, जबकि न सिर्फ बिजली उपभोक्ता बल्कि ये नये बिजली व्यापारी भी, इसी बुनियादी ढांचे पर निर्भर होंगे। 

 लेकिन, अगर इस बुनियादी ढांचे को संभालना ही मुश्किल हो जाता है तो मुट्ठीभर बाजार तत्ववादियों का यह पागलपन भरा सपना कि बिजली की आपूर्ति को, उन तारों से ही अलग कर दिया जाए, जिनसे होकर बिजली उपभोक्ताओं तक पहुंचती है, उपभोक्ताओं के लिए दु:स्वप्न में तब्दील हो जाएगा।

इसके अलावा इसकी भी कोशिश है कि राज्यों के अधिकार क्षेत्र के इस विषय में, सीधे केंद्र सरकार को अधिकार दिए जाएं। एक से अधिक राज्यों में बिजली का करोबार करने वाले बिजली व्यापारियों को, केंद्रीय बिजली नियामक आयोग के सामने रजिस्टर किया जाएगा, न कि राज्य बिजली नियामक आयोग के सामने। राज्य नियामक की बिजली के वितरण का नियमन करने की सामर्थ्य को ही छीन लेगा क्योंकि इस तरह की व्यवस्था में कुछ बड़े आपूर्तिकर्तायानी बिजली व्यापारी तो उसके नियमन के दायरे से ही बाहर होंगे। पुन: केंद्र सरकार और उसकी विभिन्न एजेंसियां, इस बुनियादी सच्चाई को समझने से ही इंकार करती हैं कि बिजली प्रणाली एक एकीकृत प्रणाली होती है और उसे नियमन के लिहाज से टुकड़ों में बांटकर सिर्फ इसलिए नहीं चलाया जा सकता है कि इस तरह से राज्यों के दायरे के इस क्षेत्र पर, केंद्र का नियंत्रण कायम किया जा सकता है।

वितरण के निजीकरण की असली समस्या है, ग्रामीण इलाकों के लिए बिजली की आपूर्ति कैसे हो? और किसानों को कैसे बिजली दी जाए, जिनके कंधे पर देश की खाद्य सुरक्षा टिकी हुई है। ठीक यही वह क्षेत्र है जिसमें निजी पूंजी घुसना ही नहीं चाहती है। इसीलिए, ओडिशा में कथित बिजली सुधार विफल हो गए क्योंकि निजी बिजली वितरण उपयोगिताएं अपने ग्रामीण उपभोक्ताओं तक बिजली पहुंचाना ही नहीं चाहती थीं। और इसीलिए, दिल्ली में यह निजीकरण कामयाबरहा है क्योंकि वहां ग्रामीण उपभोक्ता नाम मात्र को ही हैं। इसीलिए, कोलकाता बिजली आपूर्ति निगम और ऐसी ही अन्य शहरी बिजली उपयोगिताएं सफल रही हैं। उनका दायरा, शहरी इलाकों तक ही सीमित है।

यह कोई अकेले भारत की समस्या नहीं है। अमेरिकी तक में और उसके अपेक्षाकृत खाते-पीते किसानों तक के मामले में यह समस्या सामने आयी है क्योंकि वहां भी बिजली उपयोगिताएं छितरायी हुई आबादी वाले दूर-दराज के इलाकों में, दूर तक बिखरे घरों को अपने बिजली ग्रिड के साथ जोड़ने पर, ज्यादा पैसा लगाना ही नहीं चाहतीं थीं। वास्तव में रूजवेल्ट की नयी डील का एक महत्वपूर्ण तत्व यही था कि इस तरह के इलाकों में भी, लोगों तक बिजली ग्रिड को पहुंचाया जाएगा।

भारत में बिजली वितरण के सुधार के पहले के सभी अवतारों में फ्रेंचाइजी मॉडल का सहारा लेकर, शहरी इलाकों को अलग करने के तुजुर्बे किए गए थे। लेकिन, इनमें से ज्यादातर तजुर्बे फेल हो गए और आखिरकार सरकार को ही दखल देना पड़ा और इन फ्रेंचाइजियों का काम-काज फिर से अपने हाथों में लेना पड़ा। ओडिशा में अनिल अंबानी के रिलायंस इन्फ्रास्ट्रक्चर से भी इसी तरह से जिम्मेदारी वापस लेनी पड़ी थी

बहरहाल, यह प्रस्तावित बिजली वितरण सुधार तो और भी बुरा है। साफ है कि इसके तहत ग्रामीण परिवारों को बिजली पहुंचाने की जिम्मेदारी, राजकीय वितरण कंपनियों के हिस्से में ही बनी रहेगी। चूंकि प्रस्तावित व्यवस्था में निजी बिजली व्यापारी अपेक्षाकृत सामर्थ्यवान उपभोक्ताओं को छांटकर अपने हाथ में ले लेंगे,राजकीय बिजली वितरण उपयोगिताओं की ग्रामीण बिजली उपभोक्ताओं को बिजली मुहैया कराने की क्षमताएं और भी दरिद्र हो जाएंगी।

देश के किसान तो पहले ही अपनी पैदावार के लाभकारी दाम के लिए और मोदी सरकार के उन सुधारों के खिलाफ लड़ रहे हैं, जो उन्हें बड़ी पूंजी तथा व्यापारियों के रहमो-करम पर छोड़ देना चाहते हैं। अगर, जो प्रस्तावित है उसके हिसाब से बिजली वितरण कंपनियों को अनबंडल कर दिया गया यानी बांट दिया गया, तो खेती तथा ग्रामीण उद्योगों के बचने की कोई उम्मीद ही नहीं रह जाएगी।

इसके अलावा बिजली के मामले में सार्वभौम सेवा उत्तरदायित्व जैसी नयी योजनाएं, राज्यों के वित्त पर केंद्र सरकार का शिकंजा और कसने का ही काम करेंगी। याद रहे कि बिजली के लिए कोयले जैसी लागत सामग्री की आपूर्ति, कोयले की ढुलाई के लिए रेलवे द्वारा वसूले जाने वाले भाड़े तथा राज्य बिजली वितरण कंपनियों के लिए बिजली की आपूर्ति पर तो, पहले ही केंद्र सरकार का नियंत्रण है। अगर ये लागतें बढ़ती हैं, तो केंद्र सरकार के मुनाफे ही बढ़ते हैं। दूसरी ओर, इससे राज्य सरकारों पर दोहरी मार पड़ती है। एक तो उन्हें अपनी जनता की नाराजगी झेलनी पड़ती है और दूसरे, उन्हें और भारी नुकसान झेलने पड़ते हैं। इसलिए, अचरज की बात नहीं है कि सभी विपक्ष-शासित राज्यों ने प्रस्तावित बिजली संशोधनों का विरोध किया है। इसी प्रकार, बिजली क्षेत्र के इंजीनियर तथा कामगार इन बिजली संशोधनों का विरोध कर रहे हैं।

दुर्भाग्य से, इस मामले में बाजार की विफलता के सबूत अपने सामने होने के बावजूद, वर्तमान सरकार ऐसी नीतियों को ही आगे बढ़ाने में लगी हुई है, जो इस क्षेत्र को और भी खतरे में डालने जा रही हैं। बड़ी पूंजी के पितृदेश, अमरीका में भी पहले कैलीफोर्निया में और अपेक्षाकृत हाल ही में टैक्सास में इसी तरह की व्यवस्थाओं के चलते पैदा हुए भारी बिजली संकट ने यह साबित कर दिया है कि बिजली क्षेत्र में बाजारवाद नहीं चल सकता है। उसे थोपने की कोशिश की जाती है तो इससे सिर्फ बिजली क्षेत्र ही नहीं, समूची अर्थव्यवस्था का ही कबाड़ा हो सकता है। लेकिन, बाजार तत्ववाद के प्रति अपनी अंधभक्ति के चलते, मोदी सरकार इन उदाहरणों से कोई सबक लेने के लिए तैयार ही नहीं है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:-
Electricity Amendment Act: Government Experiments with Physics of the Impossible

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