सभी कानूनों के लिए न्यायिक ज्ञापन को संस्थाबद्ध करना भारत के लिए अहम
 
न्यायालयों में आजकल राज्य ही सबसे बड़े मुकदमेबाज के तौर पर अपनी भूमिका को निभा रहा है, जिसमें भारी भरकम मात्रा में न्यायिक मामलों के बोझ से न्यायपालिका दबी हुई है। लेखक का तर्क है कि 'न्यायिक ज्ञापन’ को यदि विधायिका संस्थानिक तौर पर अपनाने में जाती है तो इस न्यायिक देरी से निजात पाई जा सकती है।
भारत में संसद और राज्य की विधान सभाओं में हर वर्ष सैकड़ों की तादाद में विधेयकों को पारित किया जाता है। इन सभी कानूनों के साथ “वित्तीय ज्ञापन” के तौर पर जानी जाने वाली सूचना भी जुड़ी होती है। इस छोटे से हिस्से में इस बात की जानकारी दी गई रहती है कि जब यह बिल एक अधिनियम के तौर पर इस्तेमाल में आने लगेगा तो राजकोष पर इसकी वजह से क्या वित्तीय बोझ पड़ने वाला है।
इसे शामिल करने के पीछे सोच यह रही होगी कि कानून बनाते समय किये गए खर्चों के बारे में विश्वस्त सूचना रखी जा सके। इसके माध्यम से मंत्रालय का कार्यभार देख रहे व्यक्ति को भी इस बात का भान रहता है कि फलां बिल को प्रस्तावित करने से लेकर विधायिका द्वारा पारित करने के क्रम में लागत-लाभ के विश्लेषण की जरूरत पड़ती है।
न्यायिक बोझ के लिए भी इसी प्रकार के मूल्यांकन को किये जाने की आवश्यकता है, ऐसे प्रत्येक कानून "न्यायिक ज्ञापन" के माध्यम से, उसी प्रकार के होने चाहिए जैसे कि हमारे यहाँ वित्तीय मामलों के लिए विद्यमान हैं।
“आदर्श आज भी यही है कि न्यायपालिका को निष्पक्ष, शीघ्र, पारदर्शी, और संविधान के अनुरूप मूल्यों के संरक्षण को लेकर खड़ा किया जाए। न्यायिक ज्ञापन को यदि इसमें शामिल कर लिया जाता है तो यह इसके लिए एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित हो सकती है”
जैसा कि मुझे पिछले एक वर्ष के दौरान संसद के भीतर कई कानूनों को लेकर काम करने का मौका मिला था, जिसमें मैंने अक्सर पाया कि ऐसे ढेर सारे विधानों में कम से कम वित्तीय ज्ञापन के अनुसार वित्तीय प्रभाव ना के बराबर हैं। इसकी एक वजह यह है कि मौजूदा राजकीय क्षमता का उपयोग बिलों के संचालन और संशोधन हेतु किया जाता है। लेकिन यदि इसे परिप्रेक्ष्य में देखें तो ये अदालतें उसी राजकीय क्षमता के एक महत्वपूर्ण आधार के तौर पर काम करती हैं, जिनको लेकर यहाँ चर्चा की जा रही है। अपने काम के सार्थक तौर पर संचालन के लिए न्यायालय को अनेकों संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है ताकि महत्वपूर्ण सार्वजनिक हितों को सौदेश्यपूर्ण तरीके से मुहैय्या कराया जा सके।
विचार करने योग्य तीन मुख्य पहलू इस प्रकार से हैं:
पहला: चलिए यह मानकर विचार करते हैं कि संसद ने एक कानून को पारित कर दिया है जिसमें दूरसंचार के क्षेत्र को पूरी तरह से निजी भागीदारी के लिए खोल दिया गया है, जैसा कि भारत में इस सदी के पहले के कुछ वर्षों के दौरान देखने को मिला था।
ज्यादा गहराई में न जाते हुए यदि सरसरी निगाह से भी इस पर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि इस क्षेत्र में पहले से काफी संख्या में नए खिलाड़ी आ चुके थे, और टेलिकॉम के बाजार में अभूतपूर्व विस्तार देखने में आया था। इस विस्तार के साथ ही हमारी अदालतों पर कई नई तरह की आवश्यकताओं के विस्तार का बोझ बढ़ता चला गया।
इन खिलाड़ियों के बीच में और इनके और सरकार के बीच में टैक्स को लेकर चलने वाले विवादों से लेकर स्पेक्ट्रम आवंटन से जुड़े ‘घोटाले’, सेलफोन टॉवर को खड़ा करने और संचालन के चलते पर्यावरण संरक्षण को आधार बनाकर दायर मामले, नए और पहले से कहीं ज्यादा जटिल आधार पर चलने वाली मुकदमेबाजी जैसे कि प्रतिस्पर्धी कानूनों, आईयूसी शुल्क वगैरह ने निश्चित तौर पर कुछ प्रतिकूल असर डाला है।
यहां विचारयोग्य तथ्य यह है कि यदि एक भी मुकदमेबाजी या कार्यकारी कार्रवाई की शुरुआत होती है तो यह मुकदमेबाजी और स्थगन के लिए एक व्यापक जमीन को ही खोलकर रख सकता है और बेहद कम समय में ही अदालतों के कार्यभार को काफी अधिक बढ़ाने की ओर ले जाता है। और ठीक इसी वजह से एक न्यायिक ज्ञापन बेहद अहम बन जाता है।
दूसरा: ठीक जिस प्रकार से प्रत्येक बिल के एक हिस्से के तौर पर एक वित्तीय ज्ञापन को पेश किया जाता है, उसी तरह अदालतों के काम के बोझ के बढ़ते जाने और इस महत्वपूर्ण जरूरत को पूरा करने के लिए जिस मात्रा में संसाधनों की आवश्यकता में स्पष्ट रूप से वृद्धि को देखें तो, मंत्रालयों ने इन विधानों को प्रायोजित किया उन्होंने इसके बारे में वर्तमान में भी विचार नहीं किया होगा।
उदाहरण के लिए, जब प्रस्तावित कानून के अनुसार कोई भी प्राधिकरण या एजेंसी बनाई जाती है तो उसे स्थापित करने और संचालन के लिए लागत की व्यवस्था संबंधित मंत्रालय द्वारा मुहैय्या कराई जाती है, और संविधान के अनुच्छेद 207 (3) के तहत एक समान कानूनी स्थिति राज्य विधानसभाओं में भी मौजूद है।
"... अदालतें यहां चर्चा की जा रही उसी राजकीय क्षमता की एक महत्वपूर्ण रीढ़ के तौर पर कार्य करती हैं, और उन्हें अपने कार्यों को सार्थक तौर पर संचालन के लिए ढेर सारे संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है ताकि महत्वपूर्ण सार्वजनिक हितों को सौदेश्यपूर्ण तरीके से मुहैय्या कराई जा सके।"
इसी प्रकार न्यायिक बुनियादी ढाँचे को तैयार करने/बनाये रखने के साथ जिस मात्रा में भारी लागत जुड़ी है, ताकि किसी बिल को अधिनियमित किया जा सके, तो उचित होगा कि इस बिल सम्बन्धित लागत को प्रायोजक मंत्रालय के बजट से ही इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए।
आज हमारी न्यायपालिका जिस प्रकार से गंभीर संसाधनों के अभाव के संकट से जूझ रही है, उसे कम से कम करने के लिए यह एक महत्वपूर्ण और स्थायी तरीका हो सकता है। जबकि जनकल्याण को मुहैय्या कराना उतना ही आवश्यक है जितना कि न्याय की अदायगी।
तीसरा: विधायिका/कार्यपालिका की ओर से उठाये गए लगभग हर कदम से न्यायपालिका के कार्यभार पर पड़ने वाले बोझ के अपने निहितार्थ हैं। चूँकि न्याय तक पहुँच बना पाना हर किसी का एक मौलिक अधिकार है, इसलिए यदि न्याय में देरी या इंकार तब हो जब इसकी सबसे अधिक दरकार हो, तो इसे न्याय तक पहुँच में कमी के तौर पर ही समझना ठीक रहेगा।
यह हमें इस कोण से पता लगाने की ओर प्रेरित करता है कि इस तरह के निहितार्थ वाले निर्णय लेने से पहले अधिक समग्र लागत-लाभ विश्लेषण की आवश्यकता है। इसके लिए पहले से ही जरुरी बुनियादी ढांचे को तैयार करने की जरूरत है, नाकि पीछे-पीछे भागने और आधे अधूरे सेटअप की दया पर इसे छोड़ देने से काम चलने जा रहा है।
उदाहरण के लिए देखें तो आईपीसी की धारा 498ए और निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के चलते जो ‘फैसलों की सूची का विस्फोट’ हुआ, जैसाकि यह तब से संंदर्भित है जिसमें हजारों मामले कुछ ही समय में केस लिस्ट में जोड़ दिए गए थे।
अदालतों द्वारा पहले से ही उपलब्ध संसाधनों के अधिकाधिक इस्तेमाल के बावजूद यदि बिल या संशोधन के साथ जुड़ी लागत का आकलन करने और साथ में एक न्यायिक ज्ञापन संलग्न करने की आदत से अपनी मांगों के संदर्भ में कानून के संचालन से जुड़ी लागतों को प्रकट करने में मदद मिल सकेगी।
यदि ऐसा होता है तो जैसे-जैसे ये उत्पन्न होते हैं, यह राज्य को भी संसाधनों के अंतर को पूरा करने के लिए जरूरी आवंटन को मुहैय्या कराने की ओर ध्यान दिलाता है।
अधिकांश भारतीयों को राज्य प्रदत्त न्याय की जरूरतों की अब दरकार नहीं रही। अप्रैल 2018 तक सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित पड़े हुए थे।
"यहाँ सोचने के लिए एक और पहलू यह भी है कि कुछ कानूनों की प्रकृति ही कुछ इस प्रकार की होती है कि उसके चलते अदालत के काम का बोझ कुछ अलग तरह से प्रभावित होने लगता है।"
2006 से लेकर 2018 (अप्रैल तक) के बीच में देशभर की अदालतों में लम्बित मामलों की संख्या में 8.6% की वृद्धि देखने को मिली थी। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इन लम्बित मामलों में 36%, उच्च न्यायालयों में 17% और अधीनस्थ न्यायालयों में 7% की वृद्धि हुई।
न्यायपालिका में राजकीय क्षमता के ह्रास का असर किसी भी नागरिक के जीवन के प्रत्येक पहलू पर पड़ता है, जोकि मौलिक अधिकारों की रक्षा से लेकर अनुबंधों को लागू कराने तक को प्रभावित करता है। इसके साथ ही यदि भारत में नागरिक मुकदमेबाजी में गिरावट की प्रवृत्ति नजर आती है तो यह कोई राहत की बात नहीं, बल्कि यह चिंता का सबब है। क्योंकि इसका मतलब यह हुआ कि आम नागरिक, न्याय की गति और पहुंच की कमी से निराश होकर अब अदालतों का रुख नहीं कर रहे हैं।
इस हकीकत से रूबरू होते हुए यह सभी सरकारों के लिए पूरी तरह से अवश्यंभावी हो जाता है, वे चाहे केंद्र हो या राज्यों की सरकार, वे दोनों न्यायपालिका के लिए आवश्यक वित्त और बुनियादी ढांचे के प्रावधान को निर्मित करें, ताकि नए अधिनियमित कानून द्वारा तैयार किये गए नए अधिकारों या अपराधों के कार्यान्वयन को सक्षम किया जा सके।
यहाँ सोचने के लिए एक और पहलू यह भी है कि कुछ कानूनों की प्रकृति ही कुछ इस प्रकार की होती है कि उसके चलते अदालत के काम का बोझ कुछ अलग तरह से प्रभावित होने लगता है। उदाहरण के लिए टेलीकॉम वाले उदाहरण पर ही यदि बने रहते हैं तो इसको लेकर चलने वाले मामले और इस क्षेत्र से संबंधित मुकदमेबाजी से अक्सर सर्वोच्च न्यायालय में सुने जाते हैं।
और ठीक इसी समय, कुछ अन्य मुकदमेबाजी जैसे कि, भूमि अधिग्रहण के मामले को ही ले लें, तो इस बात की अपेक्षा की जा सकती है कि इसके मामले जिला और राज्य के उच्च न्यायालयों में दायर किए जायेंगे। इनमें से कुछ ही अंततः सुप्रीम कोर्ट में अपना रास्ता बना पाते हैं।
आज तक देखें तो सरकार की ओर से न्यायपालिका में लंबित मामलों के भारी बैकलॉग को दुरुस्त करने के लिए कई सुधारात्मक उपायों की शुरुआत की है। समाधान अनिवार्य रूप से आपूर्ति पक्ष को संबोधित करने में सुधार के संदर्भ में रहे हैं, जिसमें न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि करना- जैसे कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के 34 न्यायाधीशों के लिए विस्तार, प्रक्रियाओं के विकास, वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र को अपनाने की पहल इत्यादि शामिल है।
"बेशक, किसी भी एक सुधार या विकास की प्रक्रिया से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि यह एक झटके में ही अपने असर को दिखा दे।"
हालाँकि इनमें से अधिकांश उपायों से आशातीत सफलता नहीं मिल सकी है, और हकीकत में देखें तो कई बार ‘समाधानों' ने परिणाम के तौर पर नए, अप्रत्याशित मुद्दों को जन्म दिया है। उदाहरण के लिए, सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या के निरंतर विस्तार ने कानून के एक स्रोत के रूप में विचार और परंपरा पर पूर्ण विराम में भूमिका निभाने में अपना योगदान दिया है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी एक सुधार या विकास की प्रक्रिया से आमूलचूल परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। इसके बजाय ये सभी प्रक्रिया के हिस्से के तौर पर हैं। लेकिन यह जो प्रक्रिया है, वह मायने रखती है जो हमारी नागरिकता के अधिकारों की रक्षा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, हमारी अर्थव्यवस्था के कामकाज के लिए अहम और समग्र तौर पर हमारे लोकतंत्र के स्वास्थ्य को कमजोर करती है।
न्यायिक ज्ञापन को न्याय तक पहुँच के लिए अन्य क्षेत्रों में उपयुक्त निवेश और सुधार को अपनाने की आवश्यकता है, उदाहरण के लिए हमारी अदालतों में कार्यरत गैर-न्यायिक कर्मचारी।
इतना ही महत्वपूर्ण एक अधिनियम के जरिये कुछ प्रक्रियाओं और प्रावधानों के डिजिटलीकरण करने, गैर-न्यायिक कर्मचारियों के लिए बेहतर प्रशिक्षण के प्रबंध, बेहतर मामलों के प्रवाह के प्रबंधन के अभ्यास, सूचना प्रौद्योगिकी उपकरणों और नियमावली के इस्तेमाल में अधिकाधिक प्रोत्साहन देना शामिल है। सौभाग्य से, महामारी के चलते इनमें से कुछ शुरू भी हो चुके हैं।
कुलमिलाकर देखें तो आदर्श के तौर पर न्यायपालिका से निष्पक्ष, शीघ्र, पारदर्शी, और संविधान के अनुरूप मूल्यों के संरक्षण की उम्मीद की जाती है। न्यायिक ज्ञापन को यदि इसमें शामिल कर लेते हैं तो यह इसके लिए एक महत्वपूर्ण कड़ी सिद्ध हो सकती है।
(यश अग्रवाल पब्लिक पॉलिसी प्रोफेशनल हैं और सलाहकार के तौर पर कार्यरत हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।)
सौजन्य: द लीफलेट
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
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