BULA Bill राज्यों की शक्तियों का अतिक्रमण और क़र्ज़ माफ़िया पर लगाम कसने में नाकाम: पीपुल्स कमीशन

केंद्र सरकार के बैनिंग ऑफ अनरेगुलेटेड लेंडिंग एक्टिविटीज़ बिल (Banning of Unregulated Lending Activities Draft Bill– BULA) पर पीपुल्स कमीशन ऑन पब्लिक सेक्टर एंड पब्लिक सर्विसेज (PCPSPS) ने गंभीर सवाल उठाए हैं। कमीशन का कहना है कि यह विधेयक न तो क़र्ज़ माफ़िया और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की मनमानी रोक पाता है और न ही गरीबों को क़र्ज़ के जाल से बचाता है। इसके उलट, यह राज्यों की संवैधानिक शक्तियों को कमज़ोर करता है।
PCPSPS की ओर से प्रेस को जारी बयान में बताया गया है कि किस तरह देश में क़र्ज़ से जुड़ी आत्महत्याएँ, वसूली एजेंटों की हिंसा और साइबर धोखाधड़ी तेजी से बढ़ी हैं। आसान लोन ऐप्स, माइक्रोफाइनेंस कंपनियाँ और गोल्ड फाइनेंस फर्में लोगों से 25% से 200% तक ब्याज वसूल रही हैं।
45% क़र्ज़दारों ने कहा कि उनसे 25% से ज़्यादा ब्याज लिया गया, जबकि 20% लोगों ने बताया कि उन पर 100–200% तक ब्याज लगाया गया।
NCRB के आँकड़े बताते हैं कि 2022 में साइबर अपराधों में 25% इज़ाफ़ा हुआ और इनमें 65% मामले धोखाधड़ी से जुड़े थे।
केवल 2024 में ही भारत ने डिजिटल धोखाधड़ी और साइबर अपराधों में 22,842 करोड़ रुपये गँवाए।
क्यों बढ़ा संकट?
कमीशन ने कहा कि यह संकट अचानक पैदा नहीं हुआ।
राष्ट्रीयकरण के बाद 1990 के दशक तक ग्रामीण बैंक शाखाएँ 60% तक पहुँच गई थीं, लेकिन अब यह घटकर सिर्फ़ 29% रह गई हैं।
1995 में जहाँ ग्रामीण क़र्ज़ का हिस्सा 50% था, वहीं 2024 में यह घटकर 38% रह गया।
ग्रामीण क्षेत्रों से बैंकों की दूरी ने एनबीएफसी और माइक्रोफाइनेंस कंपनियों को जगह दी, जो अब छोटे क़र्ज़ का 84% से ज़्यादा बाँट रही हैं।
BULA Bill पर आपत्तियां
कमीशन का आरोप है कि बुला बिल सिर्फ़ अनियमित साहूकारों को पंजीकृत कराने तक सीमित है।
इसमें ब्याज दर पर कोई सीमा तय नहीं की गई।
वसूली की हिंसक प्रथाओं पर कोई रोक नहीं।
मान्यता प्राप्त एनबीएफसी पर भी यह लागू नहीं होगा, जबकि सबसे ज़्यादा शिकायतें इन्हीं से हैं।
कमीशन ने उदाहरण दिए कि हज़ारीबाग़ की गर्भवती मोनिका, जिसे महिंद्रा फाइनेंस के वसूली एजेंटों ने कुचल दिया, और बजाज फाइनेंस के दबाव में आत्महत्या करने वाले कर्मचारी तरुण सक्सेना – दोनों ही मामले इस कानून के दायरे से बाहर हैं क्योंकि ये कंपनियाँ पंजीकृत हैं।
राज्यों की भूमिका ख़त्म
कमीशन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 2022 के आदेश के बाद एनबीएफसी राज्य सरकारों के मनीलेंडिंग क़ानून से बाहर हो गए। जबकि धन उधारी राज्य सूची का विषय है, ऐसे में केंद्र सरकार का यह बिल राज्यों की शक्तियों पर सीधा अतिक्रमण है।
सरकार और RBI की नीति पर सवाल
कमीशन ने आरोप लगाया कि RBI और केंद्र सरकार दोनों ही एनबीएफसी को बढ़ावा दे रहे हैं।
RBI ने एनबीएफसी को ब्याज दर की सीमा से मुक्त किया।
बैंकों को एनबीएफसी को क़र्ज़ देने और को-लेंडिंग समझौते करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है।
गोल्ड लोन कंपनियों के लिए नियम ढीले किए गए, जिससे ग्रामीण महिलाओं का क़र्ज़ बोझ और बढ़ा।
कमीशन का कहना है कि यह सब “वित्तीय समावेशन” के नाम पर किया जा रहा है, लेकिन असली समावेशन तो तभी होगा जब ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक बैंकों की शाखाएँ बढ़ें और गरीबों को सस्ती दर पर सुरक्षित क़र्ज़ मिले।
कमीशन की मांगें
कमीशन ने सरकार से चार प्रमुख मांगें रखी हैं–
राज्यों के लिए मॉडल क़ानून बनाया जाए, जिसमें एनबीएफसी और एमएफआई भी शामिल हों।
ग्रामीण और अर्धशहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक बैंकों की शाखाएं और स्टाफ़ बढ़ाया जाए।
RBI ब्याज दर पर 18% की सीमा तय करे और कमजोर वर्ग को 4% ब्याज पर क़र्ज़ देने की योजना लागू करे।
सार्वजनिक बैंक सीधे स्वयं सहायता समूहों, किसान उत्पादक कंपनियों और व्यक्तियों को क़र्ज़ दें, न कि एनबीएफसी को।
गरीबों पर दोहरा बोझ
कमीशन ने कहा कि देश की आधी आबादी आज भी 250 रुपये रोज़ाना से कम कमा रही है, लेकिन अरबपतियों की संख्या रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गई है। बैंकों द्वारा कॉरपोरेट्स को सस्ते क़र्ज़ और कर्ज़माफ़ी देना और गरीबों को निजी क़र्ज़ माफ़िया के हवाले करना शर्मनाक है।
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