2019 : विकल्प सिर्फ व्यापक जनांदोलन

यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि विकल्पहीनता के शून्य से देश में मोदी सरकार आई। भूलना नहीं होगा कि यूपीए (कांग्रेस) की सरकारों से जनता में असंतोष था। यूपीए सरकारों के दौरान घोटालों की बाढ़ आ गई थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 90 के दशक में राममंदिर का मुद्दा उछाल कर और बाद में बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर हिंदूवाद का जो उन्माद फैलाया, उससे उसकी पैठ गहरी हुई, फिर भी दो बार सरकारों के गठन के बावजूद भारतीय जनता पार्टी (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) अपनी विघटनकारी नीतियों की वजह से सरकार चला पाने में असमर्थ रही।
भाजपा सरकार पहले 13 दिन, फिर 13 महीने और बाद में पांच साल चली। लेकिन इस दौरान इन्होंने कांग्रेस से कम लूटपाट नहीं मचाई और अपनी जड़ों को भी मजबूत करते रहे। संघ परिवार में उग्र हिंदुत्व और उदार हिंदुत्व की रस्साकशी चलती रही, फिर कमान आडवाणी से छीन ली गई। इधर, यूपीए सरकार से वामपंथियों ने परमाणु करार के मुद्दे पर समर्थन वापस ले लिया। कांग्रेस पहले से कमजोर होती चली जा रही थी। वामपंथी भी कमजोर होते जा रहे थे, जिसका परिणाम ये हुआ कि उनकी पश्चिम बंगाल में भारी पराजय हुई। इस सबका फायदा संघ को मिलता रहा और उसने सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए अपनी साजिशों को अंजाम देना शुरू कर दिया।
इस बीच, क्षेत्रीय कहे जाने वाले दल भी अपना जनाधार खोते जा रहे थे। बिहार और उत्तर प्रदेश में इसे साफ तौर पर देखा जा सकता था। 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को इसी का फायदा मिला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उग्र हिंदूवादी नीतियों को बढ़ावा देना शुरू किया और हिंदुत्व की प्रयोगशाला माने जाने वाले गुजरात के बदनाम मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना कर पेश किया।
कांग्रेस की सत्ता की कमजोरी को भांप कर देश के सारे बड़े पूंजीपति भाजपा के पीछे लामबंद हो गए और चुनाव प्रचार में अकूत धन झोंक दिया। इसके साथ ही संघ परिवार ने जम कर सांप्रदायिक प्रचार और ध्रुवीकरण किया। जनता कांग्रेस के शासन से असंतुष्ट थी। इसका लाभ भाजपा को मिला और वह पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ गई। पर सत्ता पर काबिज़ होते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमित शाह के साथ मिल कर भाजपा के ही वरिष्ठ नेताओं को पहले ठिकाने लगाया और उन्हें मार्गदर्शक मंडल में शामिल कर निष्क्रिय कर दिया। इसके बाद उन्होंने जनता पर क़हर बरपाना शुरू किया। उनका निशाना प्रमुख रूप से ग़रीब और अल्पसंख्यक लोग रहे। देश में अराजकता की स्थितियां पैदा होने लगी। अल्पसंख्यकों की हत्या की जाने लगी, उन्हें डराया-धमकाया जाने लगा। नरेंद्र मोदी जिन वायदों के सहारे सत्ता में आए थे, एक भी वादा पूरा करना तो दूर, उन्होंने लगातार विदेश यात्राएं कर वहां भाड़े के समर्थकों द्वारा अपनी जयजयकार करवानी शुरू कर दी, विदेशों में कांग्रेस और विरोधी दलों के नेताओं की निंदा शुरू की और अपने पद की गरिमा को तार-तार कर दिया।
लेकिन इसके बावजूद, जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, वहां भाजपा को सफलता मिलती चली गई। बेलगाम होकर नरेंद्र मोदी सरकार ने नोटबंदी लागू कर दी, जिसका परिणाम अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही घातक हुआ, लेकिन इससे कोई सबक लेने की जगह उन्होंने जीएसटी लागू कर दी, जिसका व्यवसायियों ने व्यापक विरोध किया।
भाजपा सरकार के इन क़दमों से अर्थव्यवस्था की कमर टूट गई। सार्वजनिक क्षेत्र के साथ ही निजी क्षेत्र में नौकरियों की भारी कमी हुई। बड़े पैमाने पर छोटे उद्योग-धंधे बंद हुए और लोग बेरोजगार हो गए। पर मोदी के बड़बोलेपन में कोई कमी नहीं आई। इसका कारण था भाजपा को लगातार मिलती चुनावी सफलता। नोटबंदी के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को भारी सफलता मिली और वहां एक भगवाधारी महंत जो खुलेआम सांप्रदायिकता भड़काने के लिए कुख्यात था, मुख्यमंत्री बना दिया गया। इसके पूर्व हरियाणा और झारखंड में भाजपा को चुनावी सफलता मिल चुकी थी।
फिलहाल, गुजरात और हिमाचल के चुनावों में भी भाजपा को सफलता मिल गई। ये अलग बात है कि गुजरात में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहा, सीटें ज्यादा मिलीं, पर लोकतंत्र में चुनावी जीत-हार ही मायने रखती है।
कांग्रेस की हालत आज भी किसी रूप में ठीक नहीं है। सांगठनिक तौर पर कांग्रेस कमजोर है और इसके दूर होने की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही। ये अलग बात है कि राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए हैं, पर कांग्रेस में फिलहाल नेताओं का अकाल दिखाई पड़ता है।दूसरे क्षेत्रीय दल भी विकल्प की राजनीति से अलग-थलग दिखाई पड़ रहे हैं। वहीं, भाजपा का मनोबल लगातार बढ़ता जा रहा है। भूलना नहीं होगा कि भाजपा को संचालित करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सत्ता हासिल करने के लिए कोई भी साजिश करने से बाज नहीं आता। साजिशों की बदौलत ही ये अब तक बढ़ता रहा है और अब देश की सत्ता पर ही इसका नियंत्रण है।
कांग्रेस की कमजोरी गुजरात चुनाव के दौरान इस रूप में नजर आई कि इसने सॉफ्ट हिंदुत्व की नीति अपनाने की कोशिश की जैसा कि कुछ विश्लेषकों ने कहा। कहा गया कि इसी नीति के तहत राहुल गुजरात में लगातार मंदिरों में जाकर मत्था टेकते रहे। यह नीति कितनी दिवालिया है, यह कहने की ज़रूरत नहीं है। हिंदुत्व चाहे उग्र हो या उदार, इसके आधार पर मतदाताओं को गोलबंद करने की कोशिश को आत्मघाती ही कहा जा सकता है। भूलना नहीं होगा कि भाजपा में भी अटल बिहारी वाजपेयी उदारवादी हिंदूवाद के पैरोकार माने जाते थे, वहीं लालकृष्ण आडवाणी उग्र हिंदुत्व के। अब स्थिति ये हो गई कि नरेंद्र मोदी उग्र हिंदुत्व के प्रतिनिधि माने जाते हैं और आडवाणी उदारवादी कहे जाने लगे। समझा जा सकता है कि हिंदुत्ववाद का यह समीकरण कैसे बदल जाता है। इसलिए कांग्रेस भी धर्म के नाम पर यदि मतदाताओं का समर्थन पाने की उम्मीद रखती है तो वह भ्रम में है। इस नीति के तहत उसे कभी सफलता नहीं मिलेगी।
कांग्रेस पहले भी अपनी उदारवादी हिंदू छवि का लाभ लेने की कोशिश करती रही है, साथ ही अल्पसंख्यक समर्थक की छवि भी भुनाती रही है। भूलना नहीं होगा कि ये धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना के खिलाफ है। दूसरे दलों को भी इसके बारे में सोचना होगा।
2019 में लोकसभा चुनाव होंगे। इसे देखते हुए भाजपा विरोधी दलों की निष्क्रियता हैरान करने वाली लगती है। सभी दल न जाने किस कुंभकर्णी निद्रा में लीन दिखाई पड़ते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में यदि नरेंद्र मोदी वापस सत्ता में आते हैं तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा और इसके बाद जो होगा, उसकी अभी कल्पना नहीं की जा सकती है। देश का लोकतांत्रिक ढांचा खतरे में पड़ सकता है।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात ये है कि भाजपा को चुनावों में पराजित करने के लिए जनता को जगाना होगा। इसके लिए चुनावी समीकरण साधने से ज्यादा ज़रूरी ये है कि देश में छात्रों, युवाओं, मज़दूरों-किसानों के आंदोलन खड़े किए जाएं। साथ ही, संस्कृतिकर्मी भी सड़कों पर आएं। सुविधाभोग की राजनीति से भाजपा को पराजित करना संभव नहीं हो सकेगा। नरेंद्र मोदी का विकल्प सिर्फ व्यापक जनांदोलन ही हो सकता है।
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